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उत्पत्ति प्रकरण।

लोग हैं अपने प्रयोजन बिना किसी को भोजन नहीं देते, जो तुम मेरे भर्त्ता होवो तो मैं तुमको यह अन्न अपने पिता के निमित्त ले चली हूँ, हूँ। मेरा पिता मशान में वैताल की नाई भवभूत हो बैठा है और धूर से भङ्ग भरे हैं, जो तुम मेरे भर्ता बनो तो मैं देती हूँ, क्योंकि भर्ती प्राणों से भी प्यारा होता है पिता से क्षमा करा लूँगी। मैंने कहा अच्छा में तुझसे विवाह करूँगा पर मुझे भोजन दे। हे साधो! ऐसा कौन है जो ऐसी आपदा में अपने वर्णाश्रम के धर्म को दृढ़ रक्खे। उसने मुझको आधा भोजन और भाषा जांबू का रस दिया, उसे भोजन कर मैं कुछ शान्तिमान हुमा परन्तु मेरा मोह निवृत्त न हुमा। तब उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ के मुझको भागे कर लिया और अपने पिता के निकट ले गई-जैसे पापी को यमदूत ले जाते हैं-और कहा, हे पिता! यह मैंने भर्ती किया है। उसके पिता ने कहा अच्छा किया और ऐसा कहकर चावल और जांबू के रस का भोजन किया। फिर उसके पिता ने कहा, हे पुत्री इसको अपने घर ले जा। तब वह मुझको अपने घर ले गई और जब अपने घर के निकट गई तब मैंने देखा कि वहां भस्थि मांस और रुधिर है और कुत्ते, गर्दभ, हस्ति प्रादिक जीवों की खालें पड़ी हैं। उनको लाँघ कर वह मुझे अपने घर में ले गई-जैसे पापी को नरक में यमदूत ले जाते हैं। वहाँ से एक बगीचा था उसमें जाकर वह अपनी माता के पास मुझे ले गई और कहा, हे माता! यह तेरा जामातृ हुमा है। माता ने कहा अच्छी बात है। निदान उनके घर हमने विश्राम किया और उस चाण्डाली ने मुझको जो भोजन दिया उसको मैंने भोजन कियामानों अनेक जन्मों के पाप भोगे। फिर विवाह का दिन नियत किया गया और उस दिन मैंने विवाह किया। चाण्डाल हँसते थे भोर नृत्य करते थे मानों मेरे पाप नृत्य करते थे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चाण्डालीविवाहवर्णननाम
दयशीतितमस्सर्गः॥८२॥

राजा बोले, हे साधो! बहुत क्या कहूँ सात दिन तक विवाह का उत्साह रहा और फिर वहाँ मैं एक बड़ा चाण्डाल हुआ। आठ महीने