पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६५

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उत्पति प्रकरण।

कितने गिर पड़े और हमको भी बहुत कष्ट हुआ। तब हम तीनों पुत्रों, तीनों कन्याओं और स्त्री सहित वहाँ से निकले और जहाँ अन्नजल सुनें वहीं जावें। फिर यह भी हाथ न भावे तब हम बहुत शोकवान हुए और शरीर नीरस सा हो गया। निदान सब ऐसे कष्टवान हुए कि पुत्र पिता को न सँभाले और पिता पुत्र को न संभाले, बान्धवों का स्नेह पापस में छूट गया सब अपने अपने वास्ते दौड़े।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे इन्द्रजालोपाख्याने उपद्रव
वर्णनबाम त्र्यशीतितमस्सर्गः॥८३॥

राजा बोले, हे सभा! इस प्रकार हम चिरकाल तक विचरते फिरे, शरीर बहुत वृद्ध हो गया और बाल बरफ की नाई श्वेत हो गये। जैसे सूखा पात वायु से विचरता है तैसे ही हम भी कमों के वश से भ्रमते रहे। जो कुछ राजा का अभिमान था वह मुझे विस्मरण हो गया और चाण्डालभाव दृढ़ हो गया। सब जीव कष्टवान होके कलत्र को छोड़ गये और कितने पहाड़ पर चढ़कर दुःख के मारे गिर पड़े। और जैसे चिड़िया को बाज भोजन करता है तैसे ही जनों को भेड़िये भोजन करते थे। एक वृक्ष के नीचे मैंने विश्राम किया तब एक बालक जो सबसे छोटा था मेरे पास भाया और बोला, हे पिता! मुझको मांस दे कि मैं भोजन करूँ, नहीं तो मेरे प्राण निकलते हैं। तब मैंने कहा मांस तो नहीं है, उसने कहा कहीं से ला दे। छोटा पुत्र सबसे प्यारा होता है इससे मैंने कहा, हे पुत्र! मेरा मांस है वह खा ले। तब उस दुर्बुद्धि ने कहा, दे मैंने वन से लकड़ियाँ इकट्ठी करके अग्नि जलाई और कहा, हे पुत्र! मैं अग्नि में प्रवेश करता हूँ जब परिपक्क हो जाऊँ तब तू भोजन करना। हे सभा! इस प्रकार मैंने स्नेह के वश कहा कि किसी प्रकार यह जीते रहैं। ऐसे कहकर मैं चिता में घुस गया और जब मुझको उष्णता लगी तब मैं काँपा और तुमको दृष्टि पाया। फिर कुछ सावधान हुआ और तुरिया बाजने लगीं। हे साधो! इस प्रकार मैंने चरित्र देखा सो तुम्हारे मागे कहा। जैसे मार्कण्डेय ने प्रलय में क्षोभ देखे भौर देवताओं से कहे तैसे ही मैंने तुमसे अपना वृत्तान्त कहा