पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३६८

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योगवाशिष्ठ।

प्रकार की वासनाओं से नाना प्रकार के रूप मन ही धरता है जैसे नटवा नाना प्रकार के स्वांग धारता है तैसे ही नाना प्रकार के रूप मन ही धारता है। लघु पदार्थ को मन ही दीर्घ करता है। सत्य को असत्य की नाई और असत्य जगत् के पदार्थ को सत्य की नाई मन ही करता है, और मन ही मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र करता है। हे रामजी जैसी वृत्ति मन की दृढ़ होती है वही सत्य हो भासती है। हरिश्चन्द्र को एक रात्रि में बारह वर्ष का अनुभव हुआ था और इन्द्रको एक मुहूर्त में युगों का अनुभव हुआ यामोरमन ही के दृढ़ निश्चय से इन्द्र ब्राह्मण के दशों पुत्र ब्रह्मापद को प्राप्त हुए थे। हे रामजी! जो सुख से बैठे हुए को मन में कोई चिन्ता भान लगी तो सुख ही में उसकोरोख नरक हो जाता है और जो दुःख में बैठा है और मन में शान्त है तो दुःख भी सुख होता है। इससे जैसा निश्चय मन में होता है वैसा ही हो भासता है और जिस ओर मन का निश्चय होता है उसी ओर इन्द्रियों का समूह विचरता है। इन्द्रियों का आधारभूत मन है, जो मन टूट पड़ता है तो इन्द्रियाँ भिन्न भिन्न हो जाती हैं। जैसे तागे के टूटे से माला के दाने भिन्न भिन्न हो जाते हैं तैसे ही मन से रहित इन्द्रियाँ भयों से रहित भिन्न होती हैं, वास्तव में आत्मतत्त्व सबमें अधिष्ठान स्थित है और स्वच्छ, निर्विकार, सूक्ष्म, समभाव नित्य और सबका साधीभूत और सब पदार्थों का ज्ञाता है। वह देह से भी अधिक सूक्ष्मरूप है अर्थात् अहंभाव के उत्थान से रहित चिन्मात्र है, उसमें मन के फुरने से संसारभासता है, वास्तव में दैतभ्रम से रहित है। सब जगत् आत्मा का किञ्चिन्मय रचा है और सबमें चैतनशक्ति व्यापी है। वायु में स्पन्द, पृथ्वी में कठोरता, सूर्य और अग्नि आदिक में प्रकाश, जल में दवता, और आकाश में शून्यता वही है और सब पदार्थों में वही चेतनशक्ति व्याप रही है। वास्तव में उसमें अनेकता नहीं है, मन से भासती है, शुक्ल पदार्थ को कृष्ण और देश, काल, पदार्थ, क्रिया और द्रव्य को मन ही विपर्यय करता है। हे रामजी! जैसे निश्चय मन में दृढ़ होता है वही सिद्ध होता है और मन बिना किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं होता। हे रामजी! जिह्वा से नाना प्रकार के भोजन करता है परन्तु मन और ठौर होता है तो उसका