पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८४

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योगवाशिष्ठ।

है। जब चित्त की वृत्ति दृश्य की भोर फुरती है तब अविद्या बढ़ती है और जब दृश्य की वृत्ति नष्ट हो और स्वरूप की ओर आवे तब अविद्या नष्ट हो जाती है। हे रामजी! जब यह संकल्प करता है कि में ब्रह्म नहीं हूँ तब मन द्दढ़ बन्धमय होता है और जब यही संकल्प दृढ़ करता है कि 'सब ब्रह्म हैं' तब मुक्त होता है। जब अनात्म में अहं अभिमान का संकल्प करता है तव बन्धन होता है और सर्व ब्रह्म के संकल्प से मुक्त होता है। दृश्य का संकल्प बन्ध है और संकल्प ही मोक्ष है, आगे जेसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो। जैसे बालक आकाश में सुवर्ण के कमलों की कल्पना करे कि सूर्यवत् प्रकाशित और सुगन्ध से पूर्ण हैं तो वे भावनामात्र होते हैं वैसे अविद्या भावनामात्र है। अज्ञानी जो जानता है कि मैं कृश, अति दुःखी और वृद्ध हूँ और मेरे हाथ, पाँव और इन्द्रिय हैं, तो ऐसे व्यवहार से बन्धवान होता है और यदि ऐसे जाने कि मैं दुःखी नहीं न मेरी देह है, न मेरे बन्धन हैं, न मांस हूँ और न मेरे अस्थि हैं मैं तो देह से अन्य साक्षी हूँ, ऐसे निश्चयवान को मुक्त कहना चाहिये। जैसे सूर्य में और मणि के प्रकाश में अन्धकार नहीं होता वैसे ही आत्मा में अविद्या नहीं। जैसे पृथ्वी पर स्थित पुरुष प्राकाश में नीलता कल्पता है वैसे ही अज्ञानी प्रात्मा में अविद्या कल्पता है-वास्तव में कुछ नहीं। फिर रामजीने पूछा, हे भगवन्! सुमेरु की छाया आकाश में पड़ती है अथवा तम की प्रभा है व और कुछ है, आकाश में नीलता कैसे भासती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! आकाश में नीलता नहीं है, न सुमेरु की बाया ही है और न तम है, आकाश पोलमात्र है यह शन्यता गुण है। हे रामजी! यह ब्रह्माण्ड तेजरूप है, इसका प्रकाश ही स्वरूप है, तम का स्वभावं नहीं। तम ब्रह्माण्ड के बाह्य है, भीतर नहीं, ब्रह्माण्ड का प्रकाश स्वभाव है और दृढ़ शून्यता से आकाश में नीलता भासती है और कुछ नहीं। जिसकी मन्ददृष्टि है उसको नीलता भासती है और जिसकी दिव्यदृष्टि है उसको नीलता नहीं भासती-पोल भासता है। जैसे मन्द दृष्टि को आकाश में नीलता भासती है, वैसे ही अज्ञानी को अविद्या सत्य भासती है। जैसे दिव्यदृष्टि वाले को नीलता नहीं भासती, वैसे ही ज्ञानवान्