पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४०७

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स्थिति प्रकरण।

अनुभव होता है परन्तु मृगतृष्णा की नदीवत् असवरूप है। रामजी ने पूछा, हे भगवन सर्व संशयों के नाशकर्ता! जब महाकल्प क्षय होता है तब दृश्यमान सब जगत् आत्मरूप बीज में लीन होता है। जैसे बीज में अंकुर रहता है, उससे उपजता है उसी में स्थित होता है और फिर उसी में लीन होता है। यह बुद्धि ज्ञान की है अथवा अज्ञान की? सर्व संशयों की निवृत्ति के अर्थ मुझसे स्पष्ट करके कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार महाकल्प के क्षय होने पर बीजरूप आत्मा में जगत् स्थित होता है। जो ऐसे कहते हैं वह परम भवानी और महामूर्ख बालक हैं जो ब्रह्म को जगत् का कारण बीज से अंकुर की नाई कहते हैं वह मूर्ख हैं। बीज तो दृश्यरूप इन्द्रिय का विषय होता है। जैसे वटवीज से अंकुर होता है और फिर विस्तार पाता है सो इन्द्रियों का विषय है और जो मन सहित पद इन्द्रियों से प्रतीत है, अर्थात् इन्द्रियों का विषय नहीं, आकाश से भी अधिक निर्मल है, उसको जगत् का बीज कैसे कहिये? जो आकाश से भी अधिक सूक्ष्म, परम उत्तम अनुभव से उपलब्ध और नित्य प्राप्त है उसको बीजभाव कहना नहीं बनता। हे रामजी! जो कि शान्त, सूक्ष्म, सदा प्रकाशसत्ता है और जिसमें दृश्य जगत् असत्रूप है उसको बीजरूप कैसे कहिये? और जब बीजरूप कहना नहीं बनता तब उसे जगत् कैसे कहिये? आकाश से भी अधिक सूक्ष्म निर्मल परमपद में सुमेरु, समुद्र, आकाश आदिक जगत् नहीं बनता। जो किञ्चन और अकिञ्चन है और निराकार, सूक्ष्म सत्ता है उसमें विद्यमान जगत् कैसे हो? वह महामुक्ष्मरूप है और दृश्य उससे विरुद्धरूप है जैसे धूप में बाया नहीं, जैसे सूर्य में अंधकार नहीं, जैसे अग्नि में बरफ नहीं, और जैसे अणु में सुमेरु नहीं होता, तैसे ही आत्मा में जगत् नहीं होता। सत्यरूप आत्मा में असत्यरूप जगत् कैसे हो? वट का वीज साकाररूप होता है और निराकाररूप आत्मा में साकाररूप जगत् होना प्रयुक्त है। हे रामजी! कारण दो प्रकार का होता है—एक समवाय कारण और दूसरा निमित्तकारण, भात्मा दोनों कारणों से रहित है। निमित्तकारण तब होता है जब कार्य से कर्ता भिन्न हो,