पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४१०
योगवाशिष्ठ।

इससे पूर्ण हो गई हूँ। स्नेहरूपी रस को वही जानता है जिसको प्राप्त हुआ है, जिसको रस का स्वाद नहीं आया वह क्या जाने। हे साधो! ऐसा सुख त्रिलोकी में और कुछ नहीं जैसा सुख परस्पर स्नेह से होता है। अब तुम्हारे चरणों को पाके में आनन्दवान हुई हूँ और जैसे चन्द्रमा को पाके कमलिनी और चन्द्रमा की किरणों को पाके चकोर आनन्दवान होते हैं तैसे ही मुझको स्पर्श करके पाप आनन्द होंगे। जब इस प्रकार अप्सरा ने कहा तब दोनों काम के वश होकर क्रीड़ा करने लगे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे भार्गवसंगमोनामसप्तमस्सर्गः॥७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार उसको पाके शुक्र ने आपको आनन्दवान मान, मन्दार और कल्पवृक्ष के नीचे क्रीड़ा की और दिव्यवन, भूषण और फूलों की माला पहिनकर वन, बगीचे और किनारों में क्रीड़ा करते और चन्द्रमा की किरणों के मार्ग से अमृत पान करते रहे। फिर विद्याधरों के गणों के साथ रहकर उनके स्थानों और नन्दनवन इत्यादि में क्रीड़ा करते कैलाश पर्वत पर गये और अप्सरा सहित वन कुञ्ज में फिरते रहे। फिर लोकालोक पर्वत पर क्रीड़ा की फिर मन्दराचल पर्वत के कुञ्ज में विचर अर्धशत युगपर्यन्त श्वेतदीप में रहे। फिर गन्धों के नगरों में रहे और फिर इन्द्र के वन में रहे। इसी प्रकार बत्तीस युग पर्यन्त स्वर्ग में रहे, जब पुण्य क्षीण हुआ तब भूमिलोक में गिरा दिये गये और गिरते-गिरते उनका शरीर टूट गया। जैसे झरने में से जल बन्द हो तैसे ही शरीर अन्तर्धान हो गया। तब उसकी चिन्तासंयुक्त पुर्यष्टक आकाश में निराधार हो रही और वासनारूपी दोनों चन्द्रमा की किरणों में जा स्थित हुए। फिर शुक्र ने तो किरणों द्वारा धान्य में निवास किया और उस धान्य को दशारण्य नाम ब्राह्मण ने भोजन किया तो वीर्य होकर ब्राह्मणी के गर्भ में जा रहा और उस धान्य को मालवदेश के राजा ने भी भोजन किया उसके वीर्यद्वारा वह अप्सरा उसकी स्त्री के उदर में जा स्थित हुई। निदान दशारण्य ब्राह्मण के गृह में शुक्र पुत्र हुआ और मालवदेश के राजा के यहाँ अप्सरा पुत्री हुई। क्रम से जव षोडश वर्ष की हुई तो महादेव की पूजा कर यह