पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१९

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स्थिति प्रकरण।

सूख जावे। निदान वह शरीर वन में मौनरूप होकर स्थित रहा। और पशु-पक्षियों ने भी उस शरीर को नष्ट न किया। उसका एक तो यह कारण था कि राग द्वैष से रहित पुण्य आश्रम था—और दूसरे भृगुजी महातपस्वी तेजवान् के निकट कोई भा न सकता था। तीसरे उनके संस्कार शेष थे। इस कारण उस देह को कोई नष्ट न कर सका। यहाँ तो शरीर की यह दशा हुई और वहाँ शुक्र पवन के शरीर से चेष्टा करता रहा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेस्थितिप्रकरणे भार्गवकलेवरवर्णनन्नाम नवमस्सर्गः॥९॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब सहस्र वर्ष अर्थात् भूमिलोक के तीनलाख साठ सहस्र वर्ष बीते तब भगवान भृगुजी समाधि से उतरे तो उन्हें शुक्र दृष्टि न आया। जब भले प्रकार नेत्र फैलाकर देखा तव मालूम हुआ कि उसका शरीर कृश हो के गिर पड़ा है। यह दशा देख उन्होंने जाना कि काल ने इसको भक्षण किया है और धूप वायु और मेघ से शरीर जर्जरीभूत हो गया है, नेत्र गदेरूप हो गये हैं, शरीर में कीड़े पड़ गये हैं और जीवों ने उसमें प्रालय बनाये हैं। पुराण अर्थात् कुसवारी और मक्खियाँ उसमें आती-जाती हैं, श्वेत दाँत निकल आये हैं—मानों शरीर की दशा को देखके हँसते हैं और मुख भोर ग्रीवा महाभयानकरूप, खपर श्वेत और नासिका और श्रवण स्थान सब जर्जरीभूत हो गये हैं। उस शरीर की यह दशा देख के भृगुजी उठ खड़े हुए और क्रोधवान् होकर कहने लगे कि काल ने क्या समझा जो मेरे पुत्र को मारा। शुक्र परम तपस्वी और सृष्टिपर्यन्त रहने वाला था सो बिना काल काल ने मेरे पुत्र को क्यों मारा, यह कौन रीति है। मैं काल को शाप देकर भस्म करूँगा। तब महाकाल का रूप काल अद्भुत शरीर धरकर पाया। उसके षट्मुख, षट्भुजा, हाथ में खङ्ग, त्रिशूल और फाँसी और कानों में मोती पहिने हुए, मुख से ज्वाला निकलती थी, महाश्याम शरीर अग्निवत् जिह्वा और त्रिशूल के प्रण से अग्नि की लपटें निकलती थीं। जैसे प्रलयकाल की अग्नि से धूम निकलता है तैसे ही उसका श्याम शरीर और बड़े पहाड़ की नाई उग्ररूप था और जहाँ वह चरण रखता था वहाँ पृथ्वी और पहाड़ काँपने लगते थे। निदान भृगुजी महाप्रलय के समुद्र