पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४

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योगवाशिष्ठ।

डालता है वैसे ही तृष्णारूपी पवन ने मुझको दर से दूर डाल दिया है और आत्मपद से दूर पड़ा हूँ। हे मुनीश्वर! जैसे भँवरा कमल के ऊपर भोर कभी नीचे बैठता है भोर कभी आसपास फिरता है स्थिर नहीं होता वैसे ही तृष्णारूपी भँवरा संसाररूपी कमल के नीचे ऊपर फिरता है कदाचिद नहीं ठहरता। जैसे मोती के बाँस से अनेक मोती निकलते हैं वैसे ही तृष्णारूपी बाँस से जगरूपी भनेक मोती निकलते हैं उससे लोभी का मन पूर्ण नहीं होता। तृष्णारूपी डब्बे में अनेक दुःखरूपी रत्न भरे हैं इससे आप वही उपाय कहिये जिससे तृष्णा निवृत्त हो। हे मुनीश्वर! यह वैराग्य से निवृत्त होती है और किसी उपाय से नहीं निवृत्त होती। जैसे अन्धकार का प्रकाश से नाश होता है और किसी उपाय से नहीं होता वैसे ही तृष्णा का नाश और उपाय से नहीं होता। तृष्णारूपी हल गुणरूपी पृथ्वी को खोद डालता है भोर तृष्णारूपी वेलि गुणरूपी रस को पीती है। तृष्णारूपी धूलि है वह अन्तःकरणरूपी जल में उछल के मलीन करती है। हे मुनीश्वर! जैसे वर्षाकाल में नदी बढ़ती है और फिर घट जाती है वैसे ही जब इष्ट भोगरूपी जल प्राप्त होता है तब हर्ष से बढ़ती है और जब वह जल घट जाता है तब सूख के क्षीण हो जाती है। हे मुनीश्वर! इस तृष्णा ने मुझको दीन किया है। जैसे सूखे तृण को पवन उड़ा ले जाता है वैसे ही मुझको भी तृष्णा उड़ाती है। इससे आप वही उपाय कहिये जिससे तृष्णा का नाश होकर आत्मपद की प्राप्ति हो और दुःखों का नाश होकर आनन्द हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यपकरणे तृष्णागारुडीवर्णनन्नाम
द्वादशस्सर्गः॥१२॥

श्रीरामजी बोले हे मुनीश्वर! यह अमंगलरूप शरीर, जो जगत् में उत्पन्न हुभा है बड़ा अभाग्यरूप है और सदा विकारवान् मांस मज्जा से पूर्ण और अपवित्र है। इससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता इसलिये इस विकाररूप शरीर की मैं इच्छा नहीं रखता। यह शरीर न अज्ञ हे और न तज्ञ है—अर्थात् न जड़ है और न चैतन्य है। जैसे अग्नि के संयोग से लोहा अग्निवत होता है सो जलाता भी है परन्तु आप नहीं जलता वैसे