पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४२

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योगवाशिष्ठ।


वशिष्ठजी बोले हे रामजी! सर्वजीवों का बीज परमात्मा है और वह सर्व ओर से आकाश की नाई स्थित है। उसके फुरने का नाम जीव है और उस जीव के भीतर जगत् है उसके आगे और नाना प्रकार की रचना है, परवास्तव में चिद्घन जीव के रूप से भीतर स्थित हुआ है इससे सबजीव चिद्घनरूप हैं। जैसे केले के थम्भ में पत्र होते हैं तैसे ही आत्मसत्ता के भीतर जीव स्थित हैं। जैसे शरीर के भीतर कीट होते हैं तैसे ही आत्माके भीतर जीवराशि हैं और जैसे प्रस्वेद से जूँ और लीख आदिक जीव उपजते हैं और दूसरे पदार्थ में कीट उपज आते हैं तैसे ही आत्मा में चित्तकला के फुरने से जीव के समूह फुर आते हैं। फिर जीव जैसी जैसी सिद्धि के निमित्त यत्र उपासना करते हैं तैसी तैसी गति पाते हैं। जो देवता की उपासना करते हैं वह देवता को प्राप्त होते हैं और यज्ञ के उपासक यक्ष को प्राप्त होते हैं इसी प्रकार जिसकी जो उपासना करते हैं उसी को वे प्राप्त होते हैं। ब्रह्म के उपासक ब्रह्म को ही प्राप्त होते हैं। इससे जो अतुच्छपद है उस महत्पद का तुम आश्रय करो। जैसे शुक्र जब दृश्य के ओर लगा तब उसने अनेक प्रकार के दृश्य भ्रम को देखा और जब शुद्धबुद्धि की ओर आया तब निर्मल बोध को प्राप्त हुआ तैसे ही जिसकी कोई उपासना करता है उसी को वह प्राप्त होता है, अन्य को नहीं प्राप्त होता। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जाग्रत् और स्वप्न का भेद कहिये कि जाग्रत् क्या है और स्वप्न क्या है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! स्थिर प्रतीति का नाम जाग्रत है अस्थिर प्रतीति का नाम स्वप्न है जो चिरकाल रहता है उसका नाम स्थिर है और जो अल्पकाल रहे उसका नाम अस्थिर है अर्थात् दीर्घकाल प्रतीति का नाम जाग्रत् है और अल्पकाल का नाम स्वप्न है। इनमें कोई विशेष भेद नहीं है, दोनों का अनुभव सम होता है। शरीर के भीतर स्थित होकर जो शरीर को जिवाता है उसका नाम जीव है। वह तेज और बीजरूप है। जीव धातु है यह सब उसके नाम हैं। जब जीवधातु स्पन्दरूप होता है तब वह शरीर के रन्ध्रों में फैलता है, मन, वाणी और देह से सब व्यवहार होता है और रन्ध्र खुल जाते हैं तब उसको जाग्रत् कहते हैं। जब चित्तकला जाग्रत् व्यवहार में स्पष्टरूप होती है और भीतर होकर फुरती है तब