पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७३

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स्थिति प्रकरण।

एक अज्ञानरूपी अहंकार से इतनी लघुता को जीव प्राप्त होते हैं और अज्ञान से रश्चित हुए मिथ्या भ्रम देखते हैं। प्रकाशरूप चिदाकाश सत् विना इनको भासता हे और अपनी वासना की कल्पना से जगत् सन् रूप भासता है। जैसे मृगतृष्णा का जल भ्रम से सत् भासता है तैसे ही अपनी कल्पना से जगत् सत् भासता है। इस संसार समुद्र को कोई नहीं तर सकता जो पुरुष शाम के विचारद्वारा निर्वासनिक हुआ है और जो संसार निरूपण शान का, जिसका प्रकाशरूप शब्द है, आश्रय करता है यह संसार के पदार्थों को शुभरूप जानता है, इससे नीचे गिरता है—जैसे कोई गढ़े को जलरूप जानके स्नान के निमित्त जावे और गिर पड़े। हे रामजी! अपने अनुभवरूपी प्रसिद्ध मार्ग में जो प्राप्त हुए हैं उनका नाश नहीं होता वे सुख से स्वच्छन्द चले जाते हैं—जैसे पथिक सूधे मार्ग में चला जाता है। ब्रह्मनिरूपकशास्त्र निर्वेदमार्ग है भोर संसारनिरूपकशास्त्र दुःखदायक मार्ग हैं। यह जगत् असवरूप और भ्रान्तिमात्र है, जिसकी बुद्धि इसी में है कि ये पदार्थ और ये सुख मुझको प्राप्त हों वे इस प्रकार संसार के विषय की तृष्णा करते हैं और वे अभागी हैं और जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् घास और तृण की नाई तुच्छ भासता है। जिस पुरुष के हृदय में परमात्मा का चमत्कार हुआ है वह इस ब्रह्माण्ड खण्डलोक और लोकपालों को तृणवत् देखता है। जैसे जीव आपदा को त्यागता है तैसे ही उसके हृदय में ऐश्वर्य भी आपदारूप त्यागने योग्य है। इससे हृदय से निश्चयात्मक तत्त्व में रहो और बाहर जैसा अपना आचार है तैसा करो। आचार का व्यतिक्रम न करना, क्योंकि व्यतिक्रम करने से शुभ कार्य भी अशुभ हो जाता है—जैसे राहु देत्य ने अमृत पान करने का यत्न किया था पर व्यतिक्रम करने से शरीर कटा। इससे शास्त्रानुसार चेष्टा करनी कल्याण का कारण है। सन्तजनों की सङ्गति और सत्शास्त्रों के विचार से बड़ा प्रकाश प्राप्त होता है। जो पुरुष इनको सेवता है वह मोह अन्धकूप में नहीं गिरता। हे रामजी! वैराग्य, धैर्य, सन्तोष, उदारता आदिक गुण जिसके हृदय में प्रवेश करते हैं वह पुरुष परम सम्पदावान होता और आपदा को नष्ट करता है। जो