पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७४

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योगवाशिष्ठ।

पुरुष शुभगुणों से सन्तुष्ट है और सत्शास्त्र के श्रवण राग में राग है और जिसे सत् की वासना है वही पुरुष है, और सब पशु हैं। जिसमें वैराग्य, सन्तोष, धैर्य आदि गुणों से चाँदनी फैलती है और हृदयरूपी आकाश में विवेकरूपी चन्द्रमा प्रकाशता है वह पुरुष शरीर नहीं मानों क्षीरसमुद्र है, उसके हृदय में विष्णु विराजते हैं। जो कुछ उसको भोगना था वह उसने भोगा और जो कुछ देखना था वह देखा, फिर उसे भोगने भौर देखने की तृष्णा नहीं रहती। जिस पुरुष का यथाक्रम और यथाशास्त्र आचार और निश्चय है उसको भोग की तृष्णा निवृत्त हो जाती है और उस पुरुष के गुण आकाश में सिद्ध देवता और अप्सरा गान करते हैं और वही मृत्यु से तस्ता है भोग की तृष्णावाले कदाचित् नहीं तरते। हे रामजी! जिन पुरुषों के गुण चन्द्रमा की नाई शीतल हैं और सिद्ध और अप्सग जिनका गान करते हैं वे ही पुरुष जीते हैं और सब मृतक हैं। इससे तुम परम पुरुषार्थ का आश्रय करो तब परम सिद्धता को प्राप्त होगे। वह कौन वस्तु है जो शास्त्र अनुसार अनुद्वैग होकर पुरुषार्थ करने से प्राप्त न हो? कोई वस्तु क्यों न हो अवश्यमेव प्राप्त होती है। यदि चिरकाल व्यतीत हो जावे और सिद्ध न हो तो भी उद्वेग न करे तो वह फल परिपक्क होकर प्राप्त होगा-जैसे वृक्ष से जब परिपक्क होके फल उतरता है तब अधिक मिष्ट और सुखदायक होता है। यथा शास्त्र व्यवहार करनेवाला उस पद को प्राप्त होता है जहाँ शोक, भय और यत्न सब नष्ट हो जाते हैं और शान्तिमान होता है। हे रामजी। मूर्ख जीवों की नाई संसारकूप में मत गिरो। यह संसार मिथ्या है। तुम उदार आत्मा हो, उठ खड़े हो और अपने पुरुषार्थ का आश्रय करो ओर इस शास्त्र को विचारों जैसे शूर रण में प्राण निकलने लगे तो भी नहीं भागता औरशस्त्र को पकड़ के युद्ध करता है कि अमरपद प्राप्त हो, तैसे ही संसार में शास्त्र का विचार पुरुषार्थ है, यही पुरुषार्थ करो और शास्त्र को विचारो कि कर्त्तव्य क्या है। जो विचार से रहित है वह दुर्भागी दीनता और अशुभ को प्राप्त होता है। महामोहरूपी धन निद्रा को त्याग करके जागो और पुरुषार्थ को अङ्गीकार करो जो जरा-मृत्यु के