पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४७५

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स्थिती प्रकरण।

शान्ति का कारण है और जो कुछ अर्थ है वह सब अनर्थरूप है, भोग सब रोग के समान हैं और सम्पदा सब आपदारूप हैं, ये सब त्यागने योग्य हैं। इसलिये सत्मार्ग को अङ्गीकार करके अपने प्रकृत आचार में विचरो और शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार व्यवहार करो, क्योंकि शास्त्र के अनुसार कर्म का करना सुखदायक होता है। जिस पुरुष का शास्त्र के अनुसार व्यवहार है उसका संसार दुःख नष्ट हो जाता है और आयु, यश, गुण, और लक्ष्मी की वृद्धि होती है। जैसे वसन्तऋतु की मञ्जरी प्रफुल्लित होती है तैसे ही वह प्रफुल्लित होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दामव्यालकटोपाख्याने देशाचारवर्णनन्नाम द्वात्रिंशत्तमस्सर्गः॥३२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! सर्व दुःख का देनेवाला और सब सुख का फल, सब ठोर, सब काल में, सबको अपने कर्म के अनुसार होता है। एक दिन नन्दीगण ने एक सरोवर पर जाके सदाशिव का आराधन किया और सदाशिव प्रसन्न हुए तो उसने मृत्यु को जीता, प्रथम नन्दी था सो नन्दीगण नाम हुआ और मित्र बांधव सबको सुख देनेवाला अपने स्वभाव से यत्न करके हुआ। शास्त्र के अनुसार यत्न करने से दैत्य क्रम से देवताओं को जो सबसे उत्कृष्ट हैं, मारते हैं। मरुत गजा के यज्ञ में संवृत नामक एक महाऋषि आया और उसने देवता, दैत्य, मनुष्य आदिक अपनी सृष्टि अपने पुरुषार्थ से रची—मानों दूसरा ब्रह्मा था और विश्वामित्र ने बारम्बार तप किया और तप की अधिकता और अपने ही शुद्धाचार से राजर्षिसे ब्रह्मर्षि हुए। हे रामजी! उपमन्यु नाम एक दुर्भागी बाह्मण था और उसको अपने गृह में भोजन की सामग्री न प्राप्त होती थी। निदान एक दिन उसने एक गृहस्थ के घर पिता के साथ दूध, चावल और शर्करा सहित भोजन किया और अपने गृह में भा पिता से कहने लगा मुझको वही भोजन दो जो खाया था। पिता ने साँव के चावल और आटे का दूध घोलके दिया और जब उसने भोजन किया तब वैसा स्वादन लगा,तो फिर पिता से बोला कि मुझको वही भोजन दो जो वहाँ पर खाया था। पिता ने कहा, हे पुत्र! वह भोजन हमारे पास नहीं, सदाशिव के पास है जो वे