पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७८
योगवाशिष्ठ।

तब मन भी नष्ट हो जाता है। हे रामजी! जैसे भले नौकर स्वामी के निमित्त रण में शरीर को तृणवत् त्यागते हैं और उससे स्वामी की जय होती है पर जो दुष्ट हैं वे नहीं त्यागते उससे दुःखी होते हैं, तैसे ही मन का उदय होना जीवों को दुःख का कारण है और मन का नष्ट होना सुखदायक है। ज्ञानवान का मन नष्ट हो जाता है, अज्ञानी का मन वृद्धि होता है। सम्पूर्ण जगत् चक्र मनोमात्र है, यह पर्वत, मण्डल, स्थावर, जङ्गमरूप जो कुछ जगत् है वह सब मनरूप है। मन किसको कहते हैं सो सुनो, चिन्मात्रशुद्धकला में जो चित्तकला का फुरना हुआ है वही संवेदन संकल्प विकल्प से मिलकर मलीन हुआ है और स्वरूप विस्मरण हो गया है, उसी का नाम मन है। वही मन वासना से संसार- भागी होता है। जब चित्त संवेदन दृश्य से मिलता है तब उससे तन्मय होकर चित्त संवित् का नाम जीव होता है और वही जीव दृश्य वेग से मिलके संसार दशा में चला जाता है और अनेक विस्तार को प्राप्त होता है। आत्मपुरुष परब्रह्म संसारी नहीं, वह न रुधिर है, न मांस है और न शरीर है। शरीरादिक सर्व जड़रूप हैं, आत्मा चेतन आकाशवत् अलेप है। यदि शरीर को भिन्न भिन्न कर देखिये तो रुधिर, मांस आस्थि से भिन्न कुछ नहीं निकलता।जैसे केले के रस को खोलकर देखिये तो पत्रों से भिन्न कुछ नहीं तेसे ही मन ही जीव है और जीव ही मन है, मन से भिन्न आकार कोई नहीं वही सर्वविकार को प्राप्त होता है। हे रामजी! जीव के बन्धन का कारण अपनी कल्पना है। जैसे कुसवारी अपने यत्न से आप ही बन्धन को प्राप्त होती है तैसे ही मनुष्य अपनी वासना से आप ही संसारबन्धन में फंसता है इससे तुम भोग की वासना मन से दूर करो, संसार का बीज वासना ही है। जिस वासना संयुक्त दिन में विचरता है तैसा ही स्वप्न भी होता है। जैसी वासना होती है तैसा ही पुण्य पाप के अनुसार परलोक भासता है अपनी ही वासना से जगत् भास आता है। जैसे अन्न जिस द्रव्य से मिलता हे तैसा ही भासता है अर्थात् मिष्ट से मिष्टा, खट्टे से खट्टा, कटुक से कटुक होता है तैसे ही जैसी वासना जिसके हृदय में दृढ़ होती है तैसे ही हो भासता है। जैसे बड़े