पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४८५

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स्थिती प्रकरण।

पुण्यवान् को स्वप्न में अपनी मूर्ति इन्द्र की भासती है, नीच को नीच ही भासती है और भूत के सङ्गी को भूतादिक भास आते हैं तैसे ही वासना के अनुसार परलोक भास आता है। जब मन में निर्मल भाव स्थित होता है तब मन की कल्पना और पापवासना मिट जाती है और जब मन में मलीन वासना बढ़ती है तब निर्मलता नहीं भासती वही रूप फल प्राप्त होता है। इससे तुम दुर्वासना कलङ्क को त्यागके पूर्णमासी के चन्द्रमावत् विराजमान हो। यह संसार भ्रान्तिमात्र हे सवरूप नहीं। अज्ञान करके भेदविकार भासते हैं, वास्तव में न कोई बन्ध है न मोक्ष है और न कोई बन्ध करनेवाला है, सब इन्द्रजाल की नाई मिथ्या भ्रम भासते हैं। जैसे गन्धर्वनगर, मृगतृष्णा का जल और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है वह असवरूप है, तेसे ही यह जगत् असत्रूप है। जीवों को अबान से ऐसा निश्चय हो रहा है कि मैं अनन्त आत्मा नहीं हूँ-नीच हूँ-जब इस निश्चय का प्रभाव हो भोर निश्चय करके भापको अनन्त प्रात्मा जाने प्रथम इसका अभ्यास करे—तब हृदय में स्थित हो। इस निश्चय से उस नीच निश्चय का प्रभाव हो जाता है। सर्व जगत् स्वच्छ निर्मल मात्मा है, उससे अतिरिक्त जिसको देहादिक भावना हुई है उसको लोक में बन्धन होता है और अपने संकल्प से आपही शुक्र की नाई बन्धन में आता है। जिसको स्वरूप में भावना होती है उसको मोक्ष भासता है। आत्मसत्ता मोक्ष और वन्ध दोनों से रहित है। एक और अद्वैत ब्रह्मसत्ता अपने आपमें स्थित है। जब मन निर्मल होता है तब इस प्रकार भासता है और किसी पदार्थ में बन्धवान नहीं होता और जब मन इस भाव से रहित अमन होता है तब ब्रह्मसत्ता को देखता है अन्यथा नहीं देखता। जब वैराग्य और अभ्यासरूपी जल से मन निर्मल होता है तब ब्रह्मज्ञानरूपी रङ्ग चढ़ता है और सर्व आत्मा ही भासता है और जब सर्वात्मभावना होती है तब ग्रहण और त्याग की वृत्ति नष्ट हो जाती है। और बन्धमोक्ष भी नहीं रहता। जब मन के कषाय परिपक्व होते हैं अर्थात भोग की सूक्ष्म वासना से मुक्त होता है और सतशास्त्र के विचार से क्रम से बुद्धि में वैराग्य उपजता है तब परमबोध को प्राप्त होता है और कमल