पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९८

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योगवाशिष्ठ।

यह जो मैंने तुमसे भूतजात कहे हैं सो ब्रह्म, शान्त, अमृतरूप, सर्वव्यापी निरामय, चैतन्यरूप, अनन्तात्मा और आधिव्याधि दुःख से रहित निर्धम है। जैसे अनन्त सोमजल के किसी स्थान में तरङ्ग फुरते हैं तैसे ही परमब्रह्म सत्ता के किसी स्थान में जगवप्रपञ्च फुरता है। फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन! ब्रह्मत्त्व तो अनन्त, निराकार, निरवयवक्रम है उसका एक अंश स्थान कैसे हुआ? निरवयव में अवयवक्रम कैसे होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! उस करके उपजे हैं अथवा उससे उपजे हैं यह जो कारण और उपादान है वह भ्रान्तिमात्र है। यह शास्त्ररचना व्यवहार के निमित्त कही है परमार्थ में कुछ नहीं है अवयव से जो देशादिक कल्पना है वह क्रम से नहीं उपजी, उदय और प्रस्त पर्यन्त दृष्टिमात्र भी होती है पर कल्पनामात्र है। वह कल्पना भी आत्मारूप है आत्मा से रहित कल्पना भी न कुछ वस्तु है न हुई है भौर न कुछ होगी। उसमें जो शब्द अर्थ आदिक युक्ति है वह व्यवहार के निमित्त है परमार्थ में कुछ नहीं। शब्द अर्थमात्र जगत् कलना उस करके उपजी है और उससे उपजी है यह दितीय कल्पना भी नहीं यह तो तन्मय शान्तरूप आत्मा ही है और कुछ नहीं। जैसे अग्नि से अग्नि की लपटें फुरती है सो अग्निरूप हैं और उससे उपजी' और 'उस करके उपजी यह कल्पना अग्नि में कोई नहीं, अग्नि ही अग्नि है, तैसे ही जन और जनक अर्थात् कार्य और कारणभेद आत्मा में कोई नहीं। कोई कारणभाव कल्पनामात्र है, जहाँ अधिकता और न्यूनता होती है वहाँ कारण कार्यभाव होता है कि यह अधिक कारण है और वह कार्य है। भिन्न-भिन्न कारण कार्य भाव बनता भी है और जहाँ भेद होता है वहाँ भेद कल्पना भी हो पर एक अद्वैत में शब्द कैसे हो और शब्द का अर्थ कैसे हो? जैसे अग्नि और अग्नि की लपट में भेद नहीं होता तैसे ही कारण कार्यभाव आत्मा में कोई नहीं-शब्द अर्थ कल्पनामात्र है। जहाँ प्रतियोगी, व्यवच्छेद और संख्या भ्रम होता है वहाँ द्वैत और नानात्व होता है जैसे चेतन का प्रतियोगी जड़ और जड़ का प्रतियोगी चेतन है, व्यवच्छेद अर्थात् परिच्छिन्न वह है जैसे घट में आकाश होता है