पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९९

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स्थिति प्रकरण।

और संख्या यह है कि जैसे जीव और ईश्वर। यह शब्द अर्थ द्वैत कल्पना में होते हैं और जहाँ एक अद्वैत आत्मा ही है वहाँ शब्द अर्थ कोई नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग बुबुदे सब ही जल हैं और जल से कुछ भिन्न नहीं, तैसे ही शब्द और अर्थकल्पना वास्तव से ब्रह्म है। जो बोधवान् पुरुष हैं उनको सब ब्रह्म ही भासता है, चित्त भी ब्रह्म है, मन भी ब्रह्म है और ज्ञान, शब्द, अर्थ ब्रह्म ही है, ब्रह्म से कुछ भिन्न नहीं भौर उससे जो भिन्न भासता है वह मिथ्यावान है जैसे अग्नि और अग्नि की लपटों की कल्पना भ्रान्तिमात्र है तैसे ही आत्मा में जगत् की भिन्न कल्पना असतरूप है। जो ज्ञान से रहित है उसको दृष्टिदोष से सत्य हो भासता है। इससे सर्व ब्रह्म है ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं। निश्चय करके परमार्थ ब्रह्म से सब ब्रह्म ही है। सिद्धान्तकाल में तुमको यही दृष्टि उपजेगी। यह जो सिद्धान्तपिञ्जर मैंने तुमसे कहा है उस पर उदाहरण कहूँगा कि यह क्रम अविद्या का कुछ भी नहीं, अज्ञान के नाश हुए अत्यन्त असत् जानोगे। जैसे तम से रस्सी में सर्प भासता है और जव प्रकाश उदय होता है तब ज्यों का त्यों भासता है और सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है, तैसे ही अज्ञान दृष्टि से जगत भासता है। जबशुद्ध विचार से भ्रान्ति नष्ट होगी तब निर्मल प्रकाश सत्ता तुमको भासेगी इसमें संशय नहीं यह निश्चितार्थ है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे ब्रह्मपतिपादनन्नाम चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४०॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आपके ये वचन क्षीरसमुद्र के तरङ्गवत् उज्ज्वल, तीनों तापों के नाशकर्ता, हृदय के मल के दूर करने को निर्मल रूप और अज्ञानरूपी तम के नाशकर्ता प्रकाशरूप हैं और गम्भीर हैं, मैं उनकी तोल नहीं पा सकता एक क्षण में मैं संशय से अन्धकार को प्राप्त होता हूँ और एक क्षण में निःसंशयरूप प्रकाश को प्राप्त होता हूँ जैसे चपल रूप मेघ से सूर्य का प्रकाश कभी भासता और कभी घिर जाता है। इससे मेरा संशय दूर करो कि अप्रमेयरूप आत्मानन्द सत्ता प्रकाशरूप और असत्यभाव से रहित साररूप है तो उस अद्वैततत्त्व में कल्पना कहाँ से भाई? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वह