पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०३

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स्थिति प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अविद्यारूपी रोग को काटकर जब शान्तरूप स्थित होते हैं और विचाररूपी नेत्र से देखते हैं तब यह नष्ट हो जाती है। इस विस्तृत व्याधि की औषध सुनो, जीव जगत् का विस्तार मैं तुमसे कहता हूँ। सात्त्विक, राजस आदिक मन की वृत्ति विचारने के लिये मैं प्रवृत्त हुआ था। जो तत्व अमृत और ब्रह्मस्वरूप है वह सर्वव्यापी निरामय, चैतन्यप्रकाश, अनन्त और भादि मन्त से रहित निर्धम है। जब वह चैतन्यप्रकाश स्पन्दरूप हो फुरता है तब दीपकवत् तेज प्रकाश चेतनरूप चित्तकला जगत् को चेतने लगता है—तब जगत् फुरता है। जैसे सोमजल समुद्र में द्रवता से तरङ्ग होता है सो जल से भिन्न नहीं है तैसे ही सर्वात्मा से भिन्न किसी कला का रूप कुछ नहीं—यह स्पन्द रूप भी अभेद है। जैसे आकाश में आकाश स्थित है तैसे ही आत्मा में चित्त शक्ति है, जैसे नदी में वायु के संयोग से तरङ्ग उठते हैं तैसे ही आत्मा में चित्तकला दृश्य जगत् होता है, बल्कि ऐसे भी नहीं, आत्मा अद्वैत है स्वतः उसमें चित्तकला हो पाती है। जैसे वायु में स्वाभाविक स्पन्द होता है। स्पन्द और निःस्पन्द दोनों वायु के रूप हैं पर जब स्पन्द होता है तब भासता है और निःस्पन्द होता है तब अलक्ष्य हो जाता है तैसे ही चित्तकला फुरती है तब लक्ष्य में आती है और निःस्पन्द हुई अवक्ष्य होती है तब शब्द की गम नहीं होती। स्पन्द से जगत् भाव को प्राप्त होती है। जैसे समुद्र में तरङ्ग और चक्र फुरते हैं तैसे ही चेतन में चित्तकला फुरती है जैसे आकाश में मुक्तमाल भासता है सो है नहीं तैसे ही आत्मा में वास्तव कुछ है नहींपरस्पन्दभाव से कुछ भूषित दूषित हो भासती है। आत्मा से भिन्नकुछ नहीं परन्तु भिन्न की नाई भासती है।जैसे प्रकाश की लक्ष्मीकोट रविसम स्थित होती है तैसे ही आत्मा में चित्तशक्ति है और देश, काल, क्रिया और द्रव्य को जैसे जैसे चेतती है तैसे ही तैसे हो भासती है। फिर नाम संज्ञा होती है और अपने स्वरूप को विस्मरण करके दृश्य से तन्मय होता है तो भी स्वरूप से व्यतिरके नहीं होती परन्तु व्यतिरेक की नाई भावना होती है। जैसे समुद्र से तरङ्ग और सुवर्ण से भूषण भिन्न नहीं तैसे ही आत्मा से चित्तशक्ति भिन्न नहीं, परन्तु अपने अनन्त स्वभाव