पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२४

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योगवाशिष्ठ।

ही यह जगत् मूढ़ों के हृदय में सत्य भासता है। तुम मूढ़ न होना, ज्ञानवानवत् विचारकर जगत् को प्रसत्य जानना।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थिति प्रकरणे जगत्सत्यासत्यनिर्णयो नाम सप्तचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिनका भोग और ऐश्वर्य में चित्त खिंचा है वे नाना प्रकार के राजस, तामस और सात्त्विक कर्म बड़े आरम्भ से करते हैं। पर वे मूढ़ आत्मशान्ति नहीं पाते जब वे भोग की तृष्णा से रहित हों तब आत्मा को देखें। जिस पुरुष को इन्द्रियाँ वश नहीं कर सकतीं वह आत्मा को हाथ में बेलफलवत् प्रत्यक्ष देखता है और जिस पुरुष ने विचार करके अहंकाररूपी मलीन शरीर का त्याग किया है उसका शरीर आत्मरूप हो जाता है। जैसे सर्प कञ्चुली को त्यागता है और नूतन पाता है तैसे ही मिथ्या शरीर को त्यागकर आत्मविचार से वह आत्मशरीर को पाता है। ऐसे जो निरहंकार आत्मदर्शी पुरुष हैं वे जगत् के पदार्थों में आसक्त भासते हैं, पर जन्ममरण नहीं पाते। जैसे अग्नि से भूना बीज खेत में नहीं उपजता तैसे ही ज्ञानवान फिर जन्म नहीं पाता। जिस अज्ञानी की भोगों में आसक्त बुद्धि है वह मन और शरीर के दुःख से दुःखी होकर बारम्बार जन्म और मरण पाता है। जैसे दिन होता है और फिर रात्रि होती है तैसे ही वह जन्ममरण पाता है। इससे तुम अज्ञानी की नाई न होना। व्यवहारचेष्टा जैसे अज्ञानी की होती है तैसे ही करो परन्तु हृदय से भोगादिक की ओरचित्त न लगाकर आत्मपरायण हो। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आपने जो कहा कि संसारचक्र दासुर के आख्यान्वत् है, कल्पना करके रचित है और उसका आकार वास्तव में शून्य है यह आपने क्या कहा? इसको प्रकट करके कहिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मायारूप जगत् मैंने वर्णन के निमित्त तुमसे कहा है और दासुर के प्रसंग से कुछ प्रयोजन न था परन्तु तुमने पूछा है तो अब सुनो। हे रामजी! इस सृष्टि में मगध नाम एक देश है जो बड़े बड़े कदम्बों, वनस्पतियों और तालों से विचित्ररूप पंखों सहित मन के मोहनेवाला अनेक वृक्षों