पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२९

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स्थिति प्रकरण।

हैं वे भी कहे और जो अपने अनुभववश से प्रत्यक्ष था सो भी बल करके उपदेश किया कि जिससे वह जागा और शान्त आत्मा हुआ। तब तो जैसे मेघ के शब्द से मोर प्रसन्न होता है तैसे ही वह बालक प्रसन्न हुआ। इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दासुरसुतबोधनन्नाम पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! उसी समय में भी कैलासवाहिनी गङ्गाजी के स्नान के निमित्त अदृष्ट शरीर संयुक्त आकाश की वीथी में सप्तर्षियों के मण्डल से चला जाता था। जिस वृक्ष पर वह बैठा था जब उसके पीछे में आया तो कुछ शब्द सुना कि उस वृक्ष के ऊपर से शब्द होता है। मूँदे कमल में भँवरे के शब्दवत् कोई इस प्रकार कहता है कि हे पुत्र! सुन! मैं तुझसे वस्तु के निरूपण के निमित्त एक आश्चर्यमय आख्यान कहता हूँ। महापराक्रमी और त्रिलोक में प्रसिद्ध स्वेतथ नाम का एक राजा है जो बड़ा लक्ष्मीवान् जगत् की रचनाक्रम करता है। सब मुनि जो जगत् में बड़े नायक हैं वे भी उत्तम चूड़ामणि करके उसको शीश में धरते हैं और वह असंख्य कर्म ओर नाना प्रकार के आश्चर्य व्यवहार करता है। उस महात्मा पुरुष को त्रिलोकी में किसी ने वश नहीं किया, सहसों उसके आरम्भ हैं और सुख और दुःख देनेवाला है। उसके आरम्भों की संख्या कुछ नहीं कही जाती—जैसे समुद्र के तरङ्गों की कुल संख्या नहीं कही जाती तेसे ही उसके आरम्भ है—और उसका पराक्रम किसी शस्त्र अस्त्र और अग्नि से नष्ट नहीं होता। जैसे आकाश को मुष्टि प्रहार से तोड़ नहीं सकते तैसे ही वह है। उसकी विस्तृत भुजा है और लीला करके आरम्भ रचता है। उसके आरम्भ को कोई दूर नहीं कर सकता, इन्द्र, विष्णु और सदाशिव भी समर्थ नहीं हैं। हे महावाहो! उसके तीन देह हैं जो दिशा को भर रहे हैं। उन तीनों देहों से वह जगत् में उत्तम, अधम, मध्यम रूप से फैल रहा है और बड़े विस्ताररूपी आकाश से उत्पन्न हुआ है और वहीं शरीर में स्थित हुआ है। जैसे आकाश का पक्षी आकाश में रहता है और जैसे पवन आकाश में है ऐसे ही वह पुरुष जगत् में फैला रहा है। उस परम आकाश में