पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३४

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योगवाशिष्ठ।

और पाताल, पृथ्वी, स्वर्ग इत्यादिक और स्थानों में जावे तो भी और उपाय कल्याण के निमित्त कोई नहीं। जैसे संकल्प का उपशम करना उपाय हे तैसे जो अनादि, अविनाशी, अविकारी, परम पावन सुख है वह संकल्प के उपशम से पाता है। इससे यत्न से संकल्प को उपशम करो। जो कुछ भाव पदार्थ हैं वे सब संकल्परूपी तत्त्व से पिरोये हुए हैं। जब संकल्परूपी ताँत टूटता है तब नहीं जाना जाता कि पदार्थ कहाँ गये। सत्य असत्य सब पदार्थ संकल्पमात्र हैं। जब तक संकल्प है तब तक ये भासते हैं और संकल्प के निवृत्त हुए प्रसत्य हो जाते हैं। संकल्प से जैसी जैसी चिन्तना करता है क्षण में तैसे ही हो जाता है। संसारभ्रम संकल्प से उदय हुआ है और संकल्प निवृत्त किये से चित्त अद्वैत के सम्मुख होता है। सर्व जगत् असत्यरूप है और माया से रचा है, जब संकल्प को त्यागकर यथा प्राप्ति में विचरेगा तब तुझको खेद कुछ न होगा। असत्यरूप जगत् के कार्य में दुःखित होना व्यर्थ है, जब संयुक्त जगत् को असत्य जानोगे तव दुःखी भी न होगे। जब तक जगत् का सद्भाव होता है तब तक दुःख होता है और जब असत्य जाना तब दुःख भी नहीं रहता। बोधज्ञान को कोई दुःख भी नहीं भासता, इससे जो नित्य प्राप्त सत्तारूप है उसमें स्थित होकर विकल्प के बड़े समूहों को त्याग करो और अद्वैत आत्मा में विश्राम सुख को प्राप्त होकर सुषुप्तिरूप चित्तवृत्ति को धारके विचरो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे संसारविचारो नाम द्विजपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५२॥

इतना सुन पुत्र ने पूछा, हे भगवन्! संकल्प कैसा है और वह उत्पन्न, वृद्ध और नाश कैसे होता है? दासुर बोले, हे पुत्र! अनन्त जो आत्मतत्त्व है वह सत्ता समानरूप है,जब वह चैतन्यसत्ता द्वैत के सम्मुख होती है तब चेतना का लक्ष जो बृत्ति ज्ञानरूप है वही बीजरूप संवित् उल्लासमात्र सत्ता को पाकर घनभाव को प्राप्त होता है, फुरने से आकाश को चेतता है और आकाश को पूर्ण करता है। जैसे जल से मेघ होता है वैसा ही फुरने की दृढ़ता से आकाश होता है। अपना स्वरूप आत्मसत्ता से भिन्न भासता है—यह भावना वित्त में भावित हो जाती है।