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स्थिति प्रकरण।

असत्यरूप है तो वासना नष्ट हो जावेगी—इसमें कुछ संदेह नहीं। जो यह जगत् हो तो इसको त्याग करने में यत्न भी हो पर यह तो असत्य भूतों का प्रपञ्च है इसके अर्थ चिकित्सा करने में तुझको खेद कुछ न होगा। जो है ही नहीं तो उसके त्याग में क्या यत्न है? यदि यह संसार सत्य होता तो इसके नाश निमित्त कोई न प्रवर्त्तता, पर यह तो सब असत्यरूप है और विचार किये से कुछ नहीं पाया जाता। इससे असत्य अहंकाररूप दृश्य को त्यागकर सत्य आत्मा को अङ्गीकार करो। जैसे धान से भूसी निकालकर चावल को अङ्गीकार करते हैं तैसे ही यत्न करके सर्व दृश्य को त्यागके आत्मपद को प्राप्त हो। यह परम पुरुषार्थ है और क्रिया किस निमित्त करता है? मलरूप संसार का नाशकर और युक्ति करके जान कि संसार असत्य कृत्रिमरूप है तो उसके नाश में क्या यत्न है? जैसे ताँबे से युक्तिपूर्वक मल दूर होता है तब निर्मल भासता है, तैसे ही युक्ति से दृश्य मल जब दूर हो तब बोधस्वरूप प्राप्त हो, इस कारण उद्यमवान हो। हे पुत्र! यह संसार संकल्प विकल्प से उत्पन्न हुआ है और विचारकर अल्पयत्न से ही निवृत्त हो जाता है। देख कि वह कौन है जो सदा स्थिर रहता है? सब पदार्थ असत्यरूप हैं और देखते देखते नष्ट हो जाते हैं—जैसे दीपक के प्रकाश से अन्धकार का अभाव हो जाता है और भ्रान्ति दृष्टि से आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है और स्वच्छ दृष्टि से प्रभाव हो जाता है तैसे ही विचार करके जगभ्रम नष्ट होता है। न यह जगत् तेरा है न तू इसका है, यह केवल भ्रम से भासता है इससे भ्रम को त्यागकर देख कि असत्यरूप है। अपनी गुरुत्वता का बड़ा ऐश्वर्य विलास है सो तेरे हृदय में मत हो। यह मिथ्या भ्रमरूप है हृदय से उठे तो आपको और जगत् को भी असत्य जान। आत्मतत्त्व से कुछ भिन्न नहीं। जब ऐसे निश्चय करेगा तब जगत्भावना नष्ट हो जावेगी और सर्वात्मा हो भासेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दासुरोपाख्याने जगत् चिकित्सा वर्णनन्नाम त्रिपञ्चाशत्ततमस्सर्गः॥५३॥