पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४२

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योगवाशिष्ठ।

के कार्य को करते भी कुछ बन्धन न होगा और आत्मा कर्तव्य भोक्तव्य से रहित है, इस प्रकार निश्चय करने से भोग की वासना निवृत्त हो जावेगी तब भोग की ओर फिर न चित्त आवेगा। जिसको यह निश्चय है कि मैंने कदाचित् कुछ किया नहीं और सदा अक्रियरूप हूँ, वह और के समूहों की कामना किस निमित्त करेगा और त्याग किसका करेगा? इससे तुम यही निश्चय धरो कि मैं नित्य अकर्त्ता रूप हूँ। जब यह बुद्धि दृढ़ होगी तब परम अमृतरूप समानसत्ता शेष रहेगी। अथवा यही निश्चय धरो कि सबका कर्ता मैं ही हूँ, मैं महाकर्ता हूँ और सबके हृदय में स्थित होकर सब कार्य करता हूँ। हे रामजी! यह दोनों निश्चय तुमको कहे हैं जिसमें तुम्हारी इच्छा हो उसमें स्थित हो। जहाँ यह निश्चय होता है कि सबका कर्ता मैं हूँ और सब जगभ्रम भी मैं हूँ तब इन पदार्थों के भाव अभाव में राग-द्वेष न होगा। जो सब आप ही हुआ तो रागद्वेष किसका करे? उसको यह निश्चय होता है कि यह शरीर मेरा दग्ध होता है, वह शरीर सुगन्धादिक से लीला करता है उसको खेद और उल्लास किसका हो। इससे तुमको जगत् के क्षोभ, उल्लास, उदय, अस्त में सुख-दुःख न होगा सबका कर्त्ता मैं हूँ तो खेद उल्लास भी मैं करता हूँ और जब आत्मा और कर्तव्य की एकता हुई तब खेद उल्लास सब आप ही लय हो जाता है और सत्ता समान शेष रहता है। वही सत्ता भाव पदार्थ में मनुस्युत होकर स्थित है और उसमें जब चित्त स्थित होता है तब फिर दुःख नहीं पाता। हे रामजी! सबका कर्ता आपको जानो कि कर्ता पुरुष मैं हूँ व अकर्ता जानो कि मैं कुछ नहीं करता अथवा दोनों निश्चय त्यागकर निस्संकल्प निर्मन हो जाओ तो तुम्हारा जो स्वरूप है वही सत्ता शेष रहेगी यह जगत् है, यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस कुत्सित भावना को त्याग करो। इस अभिमान में स्थित न होना, इस देह में अहंकार कालसूत्र नाम करके नरक की प्राप्ति का कारण है, नरक का जाल हे शस्त्र की वर्षा होती है, इससे देहाभिमान दुःखों का कारण है अर्थात् अनन्त दुःखदायक है इससे पुरुष प्रयत्न करके इसका त्याग करो, यह सबको नाश करता है। भावी कल्याण जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे इससे स्पर्श नहीं करते—जैसे