पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४३

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स्थिति प्रकरण।

चाण्डाली की गोद में श्वान का मांस हो तो उसके साथ श्रेष्ठ पुरुष सङ्ग नहीं करते तैसे ही देहाभिमान से स्पर्श न करना—यह महानीच है। यह अहंकाररूपी बादल नेत्रों के आगे पटल है इससे आत्मा नहीं भासता। जब विचार करके इस पटल को दूर करोगे तब आत्मसत्ता का प्रकाश उदय होगा। जैसे मेघघटा के दूर होने से चन्द्रमा प्रकाशित होता है तैसे ही अहंकार के प्रभाव से आत्मा प्रकाशता है। जब तुम इन निश्चयों में कोई निश्चय धारोगे तब सब दुःखों से रहित शान्तपद को प्राप्त होगे। यह निर्णय सबसे उत्तम है और उत्तम पुरुष इस निश्चय में मदा स्थित है। अब तुम भी विधि अथवा निषेध दोनों में कोई निश्चय धारण करो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे कर्तव्यविचारो नाम पञ्चपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५५॥

रामजी ने पूछा, हे ब्रह्मन्! जो कुछ तुमने सुन्दर वचन कहे हैं वह सत्य हैं। अकर्त्तारूप, आत्मा, कर्त्ता, अभोक्ता, सबका भोक्ता, भूतों को धारनेवाला, सबका आश्रयभूत और सर्वगत व्यापक, चिन्मात्र, निर्मलपद. अनुभवरूप देव सर्वभूतों के भीतर स्थित है। हे प्रभो! ऐसा जो ब्रह्मतत्त्व है वह मेरे हृदय में रम रहा और आपके वचनों से प्रकाशने लगा है। आपके वचन शीतल और शान्तरूप हैं, तप्तता को मिटाते हैं और जैसे वर्षा से पृथ्वी शीतल होती है तेसे ही मेरा हृदय शीतल हुआ है। आत्मा उदासीन की नाई अनिच्छित स्थित है। कर्तव्य-भोक्तव्य से रहित है, सब जगत् को प्रकाशता है और सब क्रिया उससे सिद्ध होती हैं। इस कारण कर्ता भी वही है और भोक्ता भी वही है, परन्तु मुझको कुब संशय है उसको अपनी वाणी से निवृत्त करो। जैसे चन्द्रमा का प्रकाश तम को नाश करता है तेसे ही आप मेरे संशय को दूर करो। यह सत्य है, यह सत्य है, यह मैं हूँ वह और है इत्यादिक द्वैतकल्पना एक अद्वैत विस्तृत शान्तरूप में कहाँ से स्थित हुई? निर्मल में मल कैसे हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस तुम्हारे प्रश्न का उत्तर में सिद्धान्तकाल में कहूँगा अथवा तुम आप ही जान लोगे। इस मोक्ष उपाय शास्त्र का सिद्धान्त जब भली प्रकार तुम्हारे हृदय में स्थित होगा तब तुम