पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४७

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स्थिति प्रकरण।

चलने से पर्वत चलायमान नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् संसार के पदार्थों से प्रसन्न नहीं होता। ज्ञानवान उस उत्तम पद में विराजता है जिसकी अपेक्षा से चन्द्रमा और सूर्य पाताल में भासते हैं अर्थात् इनका बड़ा प्रकाश भी तुच्छ भासता है। ज्ञानवान् परम उत्तम पद में विराजते हैं। ये संसारी मूद जीव संसारसमुद्र में सर्प की नाई बहे जाते हैं। जैसे ये हमको भासते हैं तैसे कहते हैं। इस जगत् में ऐसा भावपदार्थ कोई नहीं जो ज्ञानवान को राग से रञ्जित करे। जैसे राजा के गृह में महासुन्दर विचित्र रूप रानियाँ हों तो उनके ग्राम की मूढ़ नीच स्त्रियाँ प्रसन्न नहीं कर सकती तैसे ही ये जगत् के भावपदार्थ तत्त्ववेत्ता को प्रसन्न नहीं कर सकते और उसके चित्त में प्रवेश नहीं करते। जैसे आकाश में मेघ रहते हैं परन्तु आकाश को स्पर्श नहीं कर सकते तैसे ही वे निर्लेप रहते हैं। जैसे सदाशिव महासुन्दर गौरी के नृत्य देखनेवाले और गौरीसंयुक्त हैं उनको वानरी का नृत्य हर्षदायक नहीं होता, तैसे ही ज्ञानवान को जगत् एदार्थ हर्षदायक नहीं होते। जैसे जल से पूर्ण कुम्भ में रत्न का प्रतिविम्ब देखके बुद्धिमान का चित्त उसे ग्रहण नहीं करता तैसे ही ज्ञानवान का चित्त जगत् के पदार्थों को नहीं चाहता। यह संसारचक जो बड़ा विस्ताररूप भासता है सो असत्यरूप है, उसको देखके ज्ञानवान् कैसे इच्छा करे, क्योंकि यह तो चन्द्रमा के प्रतिबिम्बवत् है। शरीर भी असत्य है, इसकी इच्छा मूढ़ करते है—जैसे सेवार को मच्छ भोजन करते हैं और राजहंस नहीं करते तैसे ही वे संसार के विषयों की इच्छा करते हैं—ज्ञानी नहीं करते।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे पूर्णस्वरूपवर्णनन्नाम षट्पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५६॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह सिद्धान्त जो परम उचित वस्तु है उसकी गाथा बृहस्पति के पुत्र कच ने गाई थी—यह परम पावनरूप है एक काल में सुमेरु पर्वत के किसी गहन स्थान में देवगुरु का पुत्र कच जा बैठा। अभ्यास के वश से कदाचित् उसको आत्मतत्त्व में विश्रान्ति हुई, उसका अन्तःकरण सम्यक ज्ञानरूपी अमृत से पूर्ण हुमा, पाञ्चभौतिक जो मलीन दृश्य हैं उनसे विरक्त हुआ और ब्रह्मभाव अस्फुट