पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४८

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योगवाशिष्ठ।

होकर रमने लगा। तब उसे ऐसा भासा कि निराभास आत्मतत्त्व से कुछ भिन्न नहीं—एक अद्वैत ही है, ऐसे देखता हुआ गद्गद वाणी से बोला कि मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, क्या ग्रहण करूँ और किसका त्याग करूँ सब विश्व एक आत्मा से पूर्ण हो रहा है? जैसे महाकल्प में सब ओर से जल पूर्ण हो जाता है तैसे ही दुःख भी आत्मा है सुख भी आत्मा है और आकाश, दशोदिशा और 'अहं' 'त्वं' आदि सब जगत् आत्मा ही है। बड़ा कष्ट है कि मैं अपने आपमें नष्ट हुआ बन्धवान् था। देह के भीतरबाहर, अधः ऊर्ध्व, वहाँ-वहाँ सब आत्मा ही है, आत्मा से कुछ भिन्न नहीं। सब एक ओर से एक आत्मा ही स्थित है, और सब आत्मा में स्थित है यह सब मैं हूँ और अपने आप में स्थित हूँ। अपने आप में मैं नहीं समाता अर्थात् आदि अन्त से रहित अनन्त आत्मा हूँ। अग्नि, वायु, आकाश, जल, पृथ्वी में ही हूँ, जो पदार्थ मैं नहीं वह है ही नहीं और जो कुछ है वह सब विस्तृतरूप मैं ही हूँ। एक पूर्ण परम आकाश भैरव अर्थात् भर रहा हूँ, सब जगत् भी अज्ञानरूप है ओर समुद्रवत् एक पूर्ण आत्मा स्थित है। वह कल्याणमूर्ति इस प्रकार भावना करता हुमा स्वर्ण के पर्वत के कुञ्ज में स्थित हुआ और ओंकार का उच्चार बड़े स्वर से करने लगा। ओंकार की जो अर्द्धकला है, जिसको अर्द्धमात्रा भी कहते हैं, वह फूल से भी कोमल है उसमें वह स्थित हुआ। वह अर्द्धमात्रा कैसी है कि न अन्त:स्थित है और न बाहर है, हृदय में भावना करता हुआ उसमें स्थित हुमा और कलनारूपी जो मल था उससे रहित होकर निर्मल हुआ और उसकी चित्त की वृत्ति निरन्तर लीन हो गई। जैसे मेघ के नष्ट हुए शरत्काल का आकाश निर्मल होता है, तैसे ही कलङ्कित कलना के दूर हुए से वह निर्मल हुआ। जैसे पर्वत पुतली अचलरूप होती है तैसे ही कच समाधि में स्थित अचल हुआ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे कचगाथावर्णनन्नाम सप्तपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५७॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अङ्गनाओं के शरीरादिक भोग और जगत् के पदार्थों में कुछ सुख नहीं। ज्ञानवानों को ये पदार्थ तुच्छ