पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४९

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स्थिति प्रकरण।

भासते हैं, वे इसमें आस्था नहीं करते तो फिर किस पदार्थ की इच्छा करें। इन भोग ऐश्वर्य पदार्थों से मूढ़ असाधु संतोष पाते हैं पर जो ज्ञानवान साधु हैं वे इनमें प्रीति नहीं करते जो कृपण अज्ञानी हैं उनको भोग ही सरस है पर भोग आदि, अन्त और मध्य में दुःखरूप है। जो पुरुष इनमें आस्था करते हैं वे गर्दभ और नीच पशु हैं। हे रामजी! स्त्री रक्त, मांस और अस्थि आदि से पूर्ण है, जो इसको पाकर संतुष्ट होते हैं वे सियार हैं—मनुष्य नहीं। जो ज्ञानवान हैं वे जगत् के पदार्थों में प्रीति नहीं करते। पृथ्वी सर्व मृत्तिका, वृक्ष काष्ठ, देह मांस और पर्वत पाषाणरूप हैं। पाताल अधः है और आकाश ऊर्ध्व है सो दिशाओं से व्यापा है सर्वविश्व पाञ्चभौतिकरूप है इसमें तो अपूर्व सुख कोई नहीं जिसमें ज्ञानवान प्रीति करें। इन्द्रियों के पञ्चविषय मोक्ष के हरनेवाले और विवेक मार्ग के रोकनेवाले हैं और जो कुछ जगत् जाल की संपूर्ण विभूति है वह सव दुःखरूप है। प्रथम इनका प्रकाश भासता है पर पीछे कलङ्क को प्राप्त करते हैं। जैसे दीपक प्रथम प्रकाश को दिखाता है और फिर काजल कलङ्क को देता है, तैसे ही इन्द्रियों के विषय आगमापायी है—इनसे शान्ति नहीं होती। अज्ञानी को स्त्री आदिक पदार्थ रमणीय भासते हैं पर ज्ञानवान् की वृत्ति इनकी ओर नहीं फुरती। अज्ञानी को ये स्थिररूप भासते हैं, स्वाद देते और तुष्ट करते हैं पर ज्ञानवान को असत्य और चल रूप भासते हैं और तुष्टता के कारण नहीं होते। ये विषय भोग हैं विष की नाई हैं और स्मरणमात्र से भी विषवत् मूर्च्छा करते हैं और सत्यविचार भूल जाता है। इससे तुम इनको त्याग करके अपने स्वभाव में स्थित हो जाओ और ज्ञानवानों की नाई विचारो। हे रामजी! जब इस जीव को अनात्म में आत्माभिमान होता है तब असङ्गरूप जगत्जाल भी सत्य हो भासता है। ब्रह्मा को भी वासना के वश से कल्प देह का संयोग होता है। जैसे सुवर्ण का प्रतिविम्ब जल में पड़ता है और उसकी झलक कन्धे पर पड़ती है पर कन्धे से सुवर्ण का कुछ संयोग नहीं होता तैसे ही ब्रह्म का संयोग देह से वास्तव कुछ नहीं-कल्पनामात्र देह है। रामजी ने पूछा, हे महामते! आत्मा विरञ्चि के पद को प्राप्त होकर फिर यह