पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९३

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उपशम प्रकरण।

जगत् को भक्षण करता है और विना जाल के लोगों को फंसाये है। सामग्री से बल, तेज, विभूति, हस्त पदादि रहित लोगों को मारता है, मानों कमल के मारने से मस्तक कट जाता है। जो जड़ मूक अधम हैं वे पुरुष ऐसे मानते हैं कि हम बाँधे हैं, मानों पूर्णमासी के चन्द्रमा की किरणों से जलते हैं। जो शूरमा होते हैं वे उसको हनन करते हैं। जो अविद्यमान मन है उसी ने मिथ्या ही जगत् को मारा है और मिथ्या संकल्प और उदय और स्थित हुआ है। ऐसा दुष्ट है जो किसी ने उस को देखा नहीं। मैंने तुमसे उसकी शक्ति कही है सो तो बड़ा आश्चर्यरूप विस्तृतरूप है, चञ्चल असरूप चित्त से मैं विस्मित हुआ हूँ। जो मूर्ख है वह सब आपदा का पात्र है कि मन है नहीं पर उससे वह इतना दुःख पाता है। बड़ा कष्ट है कि सृष्टि मूर्खता से चली जाती है और सब मन से तपते हैं। यह मैं मानता हूँ कि सब जगत् मूदरूप है और तृष्णारूपी शस्त्र से कण कण हो गया है, पैलवरूप है जो कमल से विदारण हुआ है, चन्द्रमा की किरणों से दग्ध हो गये हैं, दृष्टिरूपी शस्त्र से वेधे हैं और संकल्परूपी मन से मृतक हो गये हैं। वास्तव में कुछ नहीं, मिथ्या कल्पना से नीच कृपण करके लोगों को हनन किया है, इससे वे मूर्ख हैं। मुर्ख हमारे उपदेश योग्य नहीं, उपदेश का अषिकारी जिज्ञासु है। जिसको स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हुआ पर संसार से उपराम हुआ है, मोक्ष की इच्छा रखता है और पदपदार्थ का ज्ञाता है वही उपदेश करने योग्य है। पूर्ण ज्ञानवान को उपदेश नहीं बनता और अज्ञानी मूर्ख को भी नहीं बनता। मूर्ख वीणा की धुनि सुनकर भयवान होता है और बान्धव निदा में सोया पड़ा है, उसको मृतक जानके भयवान होता है और स्वप्न में हाथी को देखकर भय से भागता है। इस मन अज्ञानियों को वश किया है और भोगों का लव जो तुच्छ सुख है उसके निमित्त जीव अनेक यत्न करते हैं और दुःख पाते है। हृदय में स्थित जो अपना स्वरूप है उसको वे नहीं देख सकते और प्रमाद से अनेक कष्ट पाते हैं। अज्ञानी जीव मिथ्या ही मोहित होते हैं।

इति श्रीयोग॰ उपशमप्र॰ मननिर्वाणवर्णननाम त्रयोदशस्सर्गः॥१३॥