पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९४

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योगवाशिष्ठ।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! संसाररूपी समुद्र में राग द्वेषरूपी बड़े कलोल उठते हैं और उसमें वे पुरुष बहते हैं जो मन को मूढ़ जड़रूप नहीं जानते। उनको जो आत्मफल है सो नहीं प्राप्त होता। यह विचार- और विवेक की वाणी मैंने तुमसे कही है सो तुम सरीखों के योग्य है। जिन मूढ़ जड़ों को मन के जीतने की सामर्थ्य नहीं है उनको यह नहीं शोमती और वे इन वचनों को नहीं ग्रहण कर सकते, उनको कहने से क्या प्रयोजन है? जैसे जन्म के अन्धे को सुन्दर मञ्जरी का वन दिखाइये तो वह निष्फल होता है, क्योंकि वह देख नहीं सकता तैसे ही विवेक वाणी का उपदेश करना उनका निष्फल होता है । जो मन को जीत नहीं सकते और इन्द्रियों से लोलुप हैं उनको आत्मबोध का उपदेश करना कुछ कार्य नहीं करता। जैसे कुष्ठ से जिसका शरीर गल गया है उसको नाना प्रकार की सुगन्ध का उपचार सुखदायक नहीं होता, तैसे ही मूढ़ को आत्म उपदेशक बोध सुखदायक नहीं होता। जिसकी इन्द्रियाँ व्याकुल और विपर्यक हैं और जो मदिरा से उन्मत्त है उसको धर्म के निर्णय में साक्षी करना कोई प्रमाण नहीं करता। ऐसा कुबुद्धि कौन है जो श्मशान में शव की मूर्ति पाकर उससे चर्चा विचार और प्रश्नोत्तर करे? अपने हृदयरूपी बाँची में मूकजड़ सर्पवत् मन स्थित है जो उसको निकाल डाले वह पुरुष है और जो उसको जीत नहीं सकता उस दुर्बुद्धि को उपदेश करना व्यर्थ है। हे रामजी! मन महातुच्छ है। जो वस्तु कुछ नहीं उसके जीतने में कठिनता नहीं। जैसे स्वप्ननगर निकट होता है और चिरपर्यन्त भी स्थित है पर जानकर देखिये तो कुछ नहीं, तैसे ही मन को जो विचारकर देखिये तो कुछ नहीं। जिस पुरुष ने अपने मन को नहीं जीता वह दुर्बुद्धि है और अमृत को त्यागकर विषपान करता है और मर जाता है। जो ज्ञानी है वह सदा आत्मा ही देखता है। इन्द्रियाँ अपने-अपने धर्म में विचरती हैं प्राण की स्पन्द-शक्ति है और परमात्मा की ज्ञानशक्ति है, इन्द्रियों को अपनी शक्ति है फिर जीव किससे बन्धायमान होता है? वास्तव में सर्वशक्ति सर्वात्मा है उससे कुछ भिन्न नहीं। यह मन क्या है? जिसने सवा जगत् नीच