पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५९९

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उपशम प्रकरण।

जब मनुष्य को तृष्णा उपजती है तब वह दीन हो जाता है जो देखने में निर्धन कृपण भासता है पर हृदय में तृष्णा से रहित है वह बड़ा ऐश्वर्यवान् है। जिसके हृदयछिद्र में तृष्णारूपी सर्पिणी नहीं पैठी उसके प्राण और शरीर स्थित हैं और उसका हृदय शान्तरूप होता है। निश्चय जानो कि जहाँ तृष्णारूपी काली रात्रि का अभाव होता है वहाँ पुण्य बढ़ते हैं-जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। हे रामजी! जिस मनुष्य- रूपी वृक्ष का तृष्णारूपी घन ने भोजन किया है उसकी पुण्यरूपी हरि- याली नहीं रहती और वह प्रफुल्लित नहीं होता। तृष्णारूपी नदी में अनन्त कलोल आवर्त उठते हैं और तृष्णवत् बहती है, जीवनरूपी खेलने की पुतली है और तृष्णारूपी यन्त्री को भ्रमावती है और सब शरीरों के भीतर तृष्णारूपी तागा है उससे वे पिरोये हैं और तृष्णा से मोहित हुए कष्ट पाते हैं पर नहीं समझते-जैसे हरे तृण से ढँपे हुए गढ़े को देखकर हरिण का बालक चरने जाता है और गढ़े में गिर पड़ता है। हे रामजी! ऐसा और कोई मनुष्य के कलेजे को नहीं काट सकता जैसे तृष्णारूपी डाकिनी इसका उत्साह और बलरूपी कलेजा निकाल लेती है और उससे वह दीन हो जाता है। तृष्णारूपी अमङ्गल इन जीवों के हृदय में स्थित होकर नीचता को प्राप्त करती है तृष्णा करके विष्णु भगवान् इन्द्र के हेतु से अल्पमूर्ति धारकर बलि के द्वार गये और जैसे सूर्य नीति को धरकर आकाश में भ्रमता है तैसे ही तृष्णारूपी तागे से बाँधे जीव भ्रमते हैं। तृष्णारूपी सर्पिणी महाविष से पूर्ण होती है और सब जीवों को दुःखदायक है, इससे इसको दूर से त्याग करो। पवन तृष्णा से चलता है, पर्वत तृष्णा से स्थित है, पृथ्वी तृष्णा से जगत् को धरती है और तृष्णा से ही त्रिलोकी वेष्टित है निदान सब लोक तृष्णा से बाँधे हुए हैं। रस्सी से बाँधा हुआ छूटता है परन्तु तृष्णा से बँधा नहीं छूटता तृष्णावान् कदाचित् मुक्त नहीं होता, तृष्णा से रहित मुक्त होता है। इस कारण, हे राघव! तुम तृष्णा का त्याग करो सब जगत् मन के संकल्प में है उस संकल्प से रहित हो। मन भी कुछ और वस्तु नहीं है युक्ति से निर्णय करके देखो कि संकल्प प्रमाद का