पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०४

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योगवाशिष्ठ।
 

अद्वैत पूर्णसत्ता हो जाओ, संसार के जो कुछ भेद भासते हैं उनको मत ग्रहण करो इस भूमिका की भावना जो भेदरूप है वह दुःखदायी जानो। जैसे अन्धहस्ती नदी में गिरता है और फिर उबलता है तैसे ही तुम पदार्थों में मत गिरो। तुम पूर्णस्वरूप हो, महात्मा पुरुष के राग द्वेष कुछ सम्भव नहीं होते। सर्वगत आत्मा एक, अद्वैत, निरन्तर, उदयरूप और सर्वव्यापक है। एक और द्वैत से रहित भी है, सर्वरूप भी वही है और निष्किञ्चनरूप भी वही है। न मैं हूँ, न यह जगत् है, सब अविद्यारूप है, ऐसे चिन्तन करो और सबका त्याग करो। अथवा ऐसे विचारो कि ज्ञान स्वरूप सत्य असत्य सब मैं ही हूँ। तुम्हारा स्वरूप सर्व का प्रकाशक अजर, अमर, निर्विकार, निष्क्रिय, निराकार और परम अमृतरूप हैं और निष्कलंक जीवशक्ति का जीवनरूप और सर्व कलना से रहित कारण का कारण है। निरन्तर उद्वेगरहित ईश्वर विस्तृतरूप है और अनुभव स्वरूप सबका बीज है। सबका अपना आप आत्मपद उचित स्वरूप ब्रह्म, मैं और मेरा भाव से रहित है। इससे अहं और इदं कलना को त्याग करके अपने हृदय में यह निश्चय धारो और यथाप्राप्त क्रिया करो। तुम तो अहंकार से रहित शान्तरूप हो।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे तृष्णा उपदेशो
नामसप्तदशस्सर्गः ॥ १७ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिनका हृदय मुक्तस्वरूप है उन महात्मा पुरुषों का यह स्वभाव है कि असम्यक दृष्टि और देहाभिमान से नहीं रहते पर लीला से जगत् के कार्यों में बिचरते हैं और जीवन्मुक्त शान्त- स्वरूप हैं। जगत् की गति आदि, अन्त, मध्य में विरस और नाशरूप है इससे वे शान्तरूप हैं और सब प्रकार अपना कार्य करते हैं। सब वृत्तियों में स्थित होकर उन्होंने हृदय से ध्येयवासना त्यागी है, निरालम्ब तत्त्व का आश्रय लिया है और सबमें उद्वेग से रहित सब अर्थ में सन्तुष्ट रूप हैं। विवेकरूपी वन में सदा विचरते हैं बोधरूपी बगीचे में स्थित हैं और सबसे अतीतपद का अवलम्बन किया है। उनका अन्तःकरण पूर्णमासी के चन्द्रमावत् शीतल भया है, संसार के पदार्थों से वे कदा-