पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६०५

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उपशम प्रकरण।

चित् उदेगवान् नहीं होते और उद्वेग और असन्तुष्टत्व दोनों से रहित हैं। वे संसार में कदाचित् दुःखी नहीं होते। वे चाहे शत्रुओं के मध्य में होकर युद्ध करें अथवा दया वा बड़े भयानक कर्म करते दृष्टि आवें तो भी जीवन्मुक्त हैं। संसार में वे न दुःखी होते और न किसी पदार्थ में आनन्दवान् होते हैं, न किसी में कष्टवान होते हैं न किसी पदार्थ की इच्छा करते हैं और न शोक करते हैं, मौन में स्थित यथाप्राप्त कार्य करते हैं और संसार में दुःख से रहित सुखी होते हैं। जो कोई पूछता है तो वे यथाक्रम ज्यों का त्यों कहते हैं और पूर्व बिना मूकजड़ वृक्षवत् हो रहते हैं। इच्छा अनिच्छा से मुक्त संसार में दुखी नहीं होते और सबसे हित करके और कोमल उचित वाणी से बोलते हैं। वे यज्ञादि कर्म भी करते हैं परन्तु सांसारिक कार्यों में नहीं डूबते। हे रामजी! जीवन्मुक्त पुरुष युक्त प्रयुक्त नाना प्रकार की उग्रदशा संयुक्त जगत् की वृत्ति को हाथ में बेल फलवत् जानता है परन्तु परमपद में आरूढ़ होकर जगत् की गति देखता रहता है और अपना अन्तःकरण शीतल और जीवों को तप्त देखता है। वह स्वरूप में कुछ द्वैत नहीं देखता है परन्तु व्यवहार की अपेक्षा से उसकी महिमा कही है। हे राघव! जिन्होंने चित्त जीता है और परमात्मा देखा है उन महात्मा पुरुषों की स्वभाववृत्ति मैंने तुमसे कही है और जो मूढ़ हैं और जिन्होंने अपना चित्त नहीं जीता और भोगरूपी कीच में मग्न हैं, ऐसे गर्दभों के लक्षण हमसे नहीं कहते बनते। उनको उन्मत्त कहिये। उन्मत्त इस प्रकार होते हैं कि महानरक की ज्वाला स्त्री है और वे उस उष्णनरक अग्नि के इन्धन हैं। उसी में जलते हैं और नाना प्रकार के अर्थों के निमित्त अनर्थ उत्पन्न करते हैं। भोगों की अनर्थरूप दीनता से उनके चित्त हत हुए हैं और संसार के आरम्भ से दुःखी होते हैं। नाना प्रकार के कर्म जो वे करते हैं उनके फल हृदय में धारते हैं और उन कर्मों के अनुसार सुख दुःख भोगते हैं। ऐसे जो लोग लम्पट हैं उनके लक्षण हम नहीं कह सकते। हे रामजी! ज्ञानवान् पुरुषों की दृष्टि पूर्व जो कही है उसी का तुम आश्रय करो। हृदय से ध्येयवासना को त्यागो और जीवन्मुक्त होकर जगत् में विचरो। हृदय की संपूर्ण इच्छायें त्याग के वीत-