पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६२६

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योगवाशिष्ठ।

है। इतने काल पर्यन्त मैं बालक था और तुच्छ पदार्थ मन के रचे हुए हैं उनमें आसक्त होकर देवतों के साथ द्वेष करता था। उन दुःखों के त्यागने से क्या अनर्थ होगा? बड़ा कष्ट है कि मैंने चिरकाल अनर्थ अर्थबुद्धि की थी, अज्ञानरूपी मद से मतवाला था और चञ्चल तृष्णा से इस जगत् में क्या नहीं किया। जो कार्य पीछे ताप बढ़ाते हैं वही मैंने किये हैं पर अब पूर्व तुच्छ चिन्ता से मुझको क्या है। वर्तमान चिकित्सा पुरुषार्थ से सफल होगी। जैसे समुद्र मथने से अमृत प्रकट भया है तैसे ही अपरिमित आत्मा की भावना से अब सब ओर से सुख होगा। मैं कौन हूँ, और आत्मा के दर्शन की युक्ति गुरु से पूछूँगा। इसलिये मैं अज्ञान के नाशनिमित्त शुक्र भगवान् का चिन्तन करूँ, वह जो प्रसन्न होकर उपदेश करेंगे उससे अनन्त विभव अपने आपमें आपसे स्थित होगा और निष्काम पुरुषों का उपदेश मेरे हृदय में फैलेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे बलिचिन्तासिद्धान्तोपदेशं
नाम पञ्चर्विशस्सर्गः ॥ २५ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार चिन्तन करके बलि ने नेत्रों को मूँदा और शुक्रजी जिनका आकाश में मन्दिर है और जो सर्वत्र पूर्ण चिन्मात्र तत्त्व के ध्यान में स्थित हैं आवाहनरूप ध्यान किया, और शुक्रजी ने जाना कि हमारे शिष्य बलि ने हमारा ध्यान किया है। तब चिदात्मस्वरूप भार्गव अपनी देह वहाँ ले आये जहाँ रत्न के झरोखे में बल बैठा था और बलि उज्ज्वल प्रभाववाले गुरु को देखकर उठा और जैसे सूर्यमुखी कमल सूर्य को देखकर प्रफुल्लित होते हैं तैसे ही उसका चित्त प्रफुल्लित हो गया। तब उसने रत्न अघ्य पुष्पों से चरण-वन्दना की और रत्नों से अर्घ दिया और बड़े सिंहासन पर बैठाकर कहा, हे भगवन्! तुम्हारी कृपा से मेरे हृदय में जो प्रतिभा उठती है वह स्थिर होकर मुझको प्रश्न में लगाती है अब में उन भोगों से जो मोह के देनेवाले हैं विग्क्त हुआ हूँ और तत्त्वज्ञान की इच्छा करता हूँ जिससे महामोह निवृत्त हो। इस ब्रह्माण्ड में स्थिर वस्तु कौन है और उसका कितना प्रमाण है? इदं क्या है और अहं क्या है? मैं कौन हूँ तुम