कौन हो और यह लोक क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर कृपा करके कहिये। शुक्र बोले, हे दैत्यराज! बहुत कहने से क्या है, मैं आकाश में जाना चाहता हूँ इससे सबका सार संक्षेप से मैं तुमसे कहता हूँ सो सुनो। जो चेतन तत्त्व विस्तृतरूप है वही चिन्मात्र है और चेतन ही व्यापक है। तू भी चेतनस्वरूप है, मैं भी चेतन हूँ और यह लोक भी चेतनरूप है। यही सबका सार है। इस निश्चय को हृदय में दृढ़कर धारोगे तब निर्मल निश्चयात्मक बुद्धि से अपने को आपसे देखोगे और उससे विश्रान्तिमान् होगे। हे राजन्! यदि तुम कल्याणमूर्ति हो तो इसी कहने से सब सिद्धान्त को प्राप्त होगे और सबका सार जो चिदात्मा है उसको पावोगे और यदि कल्याणमूर्ति नहीं हो तो फिर कहना भी निरर्थक होता है। चेतन को जो चैत्यकला का सम्बन्ध है वही बन्धन है। इससे जो मुक्त है वही मुक्त है। आत्मतत्त्व चेतन रूप चैत्यकलना से रहित है। यह सब सिद्धान्तों का संग्रह है। हे राजन्! इस निश्चय को धारो और निर्मलबुद्धि से अपने आपसे आपको देखो, यही आत्म-पद की प्राप्ति है। सप्तऋषियों से देवताओं का कोई कार्य है उस निमित्त मैं आकाश जाता हूँ। जब तक यह देह है तब तक मुक्तबुद्धि को यथाप्राप्त कार्य त्यागने योग्य नहीं। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! ऐसे कहकर शुक्र बड़े वेग से आकाश में चले और जैसे समुद्र से तरङ्ग उठकर लीन हो जावें तैसे ही शुक्रजी अन्तर्धान हो गये।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे बुल्युपदेशो नाम षटर्विशस्सर्गः ॥ २६ ॥
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! देवता और दैत्यों के पूजने योग्य शुक्र के गये से बलवानों में श्रेष्ठ बलि मन में विचारने लगा कि भगवान् शुक्र- जी यह क्या कह गये कि त्रिलोकी चिन्मात्ररूप है, मैं भी चेतन हूँ, दिशा भी चेतनरूप हैं, परमार्थ से आदि जो सत्यस्वरूप है वह भी चेतन है उससे भिन्न नहीं, यह जो सूर्य है उसमें चेतन होने से ही सूर्यत्व-भाव भासता है और यह जो भूमि है उसको चेतन न चेते तो इसमें भूमित्व भाव नहीं। यह जो दशों दिशा हैं यदि इनको चेतन न चेते तो दिशा में दिशात्वभाव न रहे, पर्वत में पर्वतता भी चेतन बिना नहीं।