पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३१

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उपशम प्रकरण।

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब सहस्र दिव्य वर्ष व्यतीत हुए तब दैत्यराज समाधि से उतरे, नौबत नगारे बाजने लगे, देवता और दैत्य बड़े जय जय शब्द करने लगे नगरवासी देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जैसे सूर्य उदय हुए कमल खिल आते हैं तैसे ही खिल आये। जब तक दैत्य न आये थे तब तक राजा ने विचारा कि बड़ा आश्चर्य है कि परमपद जो ऐसा रमणीय, शान्तरूप और शीतल पद है उसमें स्थित होकर मैंने परम विश्राम पाया है। इससे फिर उसी पद का आश्रय करूँ और उसी में स्थित होऊँ, राज्य विभूति से मेरा क्या प्रयोजन है। ऐसा आनन्द शीतल चन्द्रमा के मण्डल में भी नहीं होता जैसा अनुभव में स्थित होने से पाया जाता है। हे रामजी! इस प्रकार चिन्तना कर वह फिर समाधि करने लगा कि जिससे गलित मन हो। तब दैत्यों की सेना, मन्त्री, भृत्य, बान्धवों ने आनकर उनको घेर लिया और जैसे चन्द्रमा को मेघ घेर लेता है तैसे ही घेर करके प्रणाम करने लगे। बलिराज ने मन में विचारा कि मुझको त्यागने और ग्रहण करने योग्य क्या है, त्याग उसका करना चाहिये जो अनिष्ट और दुःखदायक हो और ग्रहण उसका कीजिये जो आगे न हो पर आत्मा से व्यतिरेक कुछ नहीं उसमें ग्रहण और त्याग किसका करूँ। मोक्ष की इच्छा भी मैं किस कारण करूँ क्योंकि जो बन्ध होता है तो मोक्ष की इच्छा करता है सो जब बन्ध ही नहीं तो मोक्ष की इच्छा कैसे हो? यह बन्ध और मोक्ष बालकों की क्रीड़ा कही है वास्तव में न बन्ध है न मोक्ष है। यह कल्पना भी मूढ़ता में है सो मूढ़ता तो मेरी नष्ट हुई है, अब मुझको ध्यान विलास से क्या प्रयोजन है और ध्यान से क्या है। अब मुझको न परमतत्त्व की इच्छा है, और न कुछ ध्यान से प्रयोजन है अर्थात् न विदेहमुक्त की इच्छा है, न जगत् में स्थित रहने की इच्छा है, न मैं मरता हूँ, न जीता हूँ, न सत्य हूँ, न असत्य हूँ, न सम हूँ, न विषम हूँ, न कोई मेरा है और न कोई और है अद्वैतरूप मैं एक आत्मा हूँ सो मुझको नमस्कार है इस राजक्रिया में मैं स्थित हूँ तो भी आत्मपद कार्य में स्थित हूँ, और सदा शीतल हूँ। ध्यान दिशा से मुझको सिद्धता नहीं और न राज-