पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३३

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उपशम प्रकरण।

ऐश्वर्य पद के गिरने से खेदवान् भी न होगा और सब पदार्थों और विभूतियों के उदय और अस्त में अमर होगा। यह बलि की विज्ञान प्राप्ति का क्रम वृत्तान्त कहा है। इसी दृष्टि का आश्रय करके तुम भी स्थित हो और बलि की नाई अपने विवेक से नित्य तृप्ति आत्मनिश्चय को धारो कि सब मैं ही हूँ। इस निश्चय से निर्द्वन्द और परमपद प्राप्त होगा। हे रामजी! दस करोड़ वर्ष तीनों लोकों का राज्य बलि ने भोगा और अन्त विरक्त हुआ तैसे ही तुम भी भोगों से विरक्त हो जाओ। ये भोग तुच्छ हैं, इनको त्यागकर परमपद में प्राप्त हो जाओ। यह जो दृश्य प्रपञ्च नाना प्रकार के विकार संयुक्त भासता है वह न कोई तेरा है और न तू किसी का है। जैसे पर्वत और शिला में बड़ा भेद है तैसे ही जिस पुरुष का मन संसार की ओर धावता है वह मन की वृत्ति में डूबता है। जब तुम मन को हृदय में धरोगे तब सब जगत् में तुम प्रकाशवान् होगे। तुम आत्मस्वरूप हो तो अपना क्या और पराया क्या- यह सब मिथ्या कल्पना है। तुम सबके यदि पुरुषोत्तम हो तुम ही साकाररूप पदार्थ और तुमही सब चोर पूर्ण और सब जगत् में चेतनरूप हो और स्थावर-जङ्गम जगत् सब तुम में पिरोया है-जैसे सूत में माला के दाने पिरोये हैं। तुम नित्य शुद्ध, उदित, बोधस्वरूप और भ्रान्ति से रहित हो। जन्म आदिक सब रोग के नाश निमित्त आत्मविचार करके बलात्कार से भोगों का त्यागकर सबके भोक्ता हो जाओ। तुम केवल स्वरूप जगत् के नाथ हो और चैतन्य सूर्य प्रकाशरूप सर्वदा स्थित हो। सब जगत् तुम्हारे प्रकाश से प्रकाशता है और सुख दुःख की कल्पना तुम्हारे में कोई नहीं। तुम तो शुद्ध, सर्वात्मा और सर्व प्रकाशक हो, इष्ट अनिष्ट को त्याग करके केवल अपने स्वरूप में स्थित हो। इष्ट अनिष्ट के त्याग से निरन्तर सत्यता उदय होती है उस सत्यता को हृदय में धार फिर जन्म मरण भी नहीं आता। जिस जिस पदार्थ में मन लगे उससे निकालकर आत्मतत्त्व में लगाओ! जब इस प्रकार तुम दृढ़ अभ्यास करोगे तब मन जो उन्मत्त हाथी है वह बाँधा जावेगा और तभी सब सिद्धान्तों के परमसार को प्राप्त होगे। हे रामजी! तुम मूढ़ों