पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६३४

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योगवाशिष्ठ।

की नाई मत हो। क्योंकि मूढ़ जीव सब चेष्टा मिथ्या ही करता है। मिथ्या चेष्टा से जिनकी बुद्धि नष्ट हुई है और अविद्यारूपीधूर्त से बिके हैं उनके तुल्य न होना। यह जगत् अणुमात्र भी कुछ नहीं है। पर बड़ा विस्ताररूपी जो दृष्ट आता है सो निर्णय से देखा है कि मूढ़ता से भासित हुआ है। मूढ़ता परम दुःखरूप है, इससे अधिक दुःख कोई नहीं। आत्मा-रूपी सूर्य के आगे आवरणकर्त्ता जो अज्ञानरूपी मेघ है उसको विवेक-रूपी पवन से नाश करो तब आत्मा का साक्षात्कार होगा। आत्म-विचार के अभ्यास और विषयों से वैराग्य बिना आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता। वेदरूप वेदान्तशास्त्र जो दृष्टान्त और तर्कयुक्त है उनसे भी अपने विचार बिना साक्षात्कार नहीं होता। आत्मविचार और पुरुषार्थ से आत्मा की प्रसन्नता होती है और बुद्धि की निर्मलता बोध से प्राप्त होती है। इससे संकल्प विकल्प से रहित होकर चैतन्यतत्त्व में स्थित हो जाओ। विस्तृत और व्यापकरूप आत्मतत्त्व की स्थिति मेरे वचनों के ग्रहण करने से सब संकल्प तुम्हारे लीन हो गये हैं संवेदनरूपी भ्रम शान्त हुआ है और संसाररूपी कुहिरा तुम्हारा नष्ट हुआ है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे बल्युपाख्यानसमाप्तिवर्णन
नामैकोनत्रिंशत्तमस्सर्गः ॥ २९ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अब तुम विज्ञान प्राप्ति के निमित्त और क्रम सुनो जैसे दैत्य असुर प्रह्लाद को आत्मा की सिद्धता हुई तैसे तुम भी हो जाओ। पाताल में एक हिरण्यकशिपु दैत्य महाबलिष्ठ हुआ है जिसने इन्द्र आदि भगाये थे और विष्णुजी के सम उसका पराक्रम था। सम्पूर्ण भुवन उसने वशकर छोड़े थे और सब देवता और दैत्यों को वश करके जगत् का कार्य करता था। वह दैत्यों और तीनों भुवनों का ईश्वर हुआ और समय पाकर कई पुत्र उत्पन्न किये-जैसे वसन्त ऋतु अंकुर उत्पन्न करती है। उसके पुत्रों में बड़ा पुत्र प्रह्लाद सबसे अधिक प्रकाशवान् हुआ और तिस पुत्र से हिरण्यकशिपु ऐसा शोभित हुआ जैसे सब सुन्दर लताओं से वसन्तऋतु शोभता है। जैसे प्रलयकाल में सूर्य सब लोकों को तपाता है तैसे ही वह सबको तपाने लगा। जब दुष्ट क्रीड़ा