पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५७

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उपशम प्रकरण।

होती है तब देहरूपी यन्त्र बहता है उस यन्त्र में चर्म अस्थि आदिक लकड़ियाँ और रस्सी हैं, इन्द्रियरूपी घोड़े हैं और मनरूपी सारथी चलानेवाला है। उस देहरूपी रथ में मैं चेतनरूप स्थित हूँ, परन्तु मैं किसी में आस्था नहीं करता। देह रहे अथवा गिरे मुझको कुछ इच्छा नहीं, मैं अब आत्मलाभ को प्राप्त हुआ हूँ और चिरकाल से पीछे उपशम को प्राप्त हुआ हूँ। जैसे कल्प के अन्त में जगत् शान्ति को प्राप्त होता है तैसे ही दीर्घ संसारमार्ग में चिरकाल तक भ्रमता भ्रमता अब विश्राम को प्राप्त हुआ हूँ। जैसे कल्प के अन्त में वायु चलता चलता रह जाता है। हे सर्वरूपात्मा! तुझको नमस्कार है-जो तुझको और मुझको इस प्रकार जानते हैं। हे देव! सम्पूर्ण जगत्जाल जो विस्तृतरूप है उसका तुमने कदाचित् स्पर्श नहीं किया-तुम्हारी जय है। जैसे पुष्पों में गन्ध और तिलों में तेल रहता है तैसे ही तुम सब देहों में रहते हो। तुम सर्व जगत् के प्रकाशक दीपक हो। उत्पत्ति और प्रलयकर्ता और सदा अकर्तारूप तेरी जय है तेरे परमाणु चिद्अणु में यह विस्ताररूप जगत् स्थित है जैसे वटवीज में वृक्ष होता है, फिर और में और होता है तैसे ही चिद्अणु में जगत् है। जैसे आकाश में एक बादल के अनेक आकार दृष्ट आते हैं तैसे ही चित्तकला फुरने से अनेक पदार्थ भ्रमरूप भासते हैं। इस संसार के जो क्षणभंगुररूप पदार्थ हैं इनकी अभावना किये से अब भाव अभाव से रहित भाव को देखता हूँ। मुझे अब यह निश्चय हुआ है कि मान, मद, क्रोध और कलुषता, कठोरता आदिक विकारों में महापुरुष नहीं डूबते पर जिनकी नीच प्रवृत्ति है वे इन दोषों और अवगुणों में डूबते हैं। पूर्व जो मेरी महादुरात्मा नीच अवस्था थी उसको स्मरण करके अब मैं हँसता हूँ कि मैं कौन था और क्या जानता था। हे मेरे आत्मा! मैं उस पद को प्राप्त हुआ था जहाँ चिन्तारूपी अग्नि की ज्वाला थी और दग्ध हुए जीर्ण संसार के आरम्भ थे पर अब देहरूपी नगर में स्फाररूपी परमार्थ की जय है और अब दुःख ग्रहण कर नहीं सकते। जहाँ दुष्ट इन्द्रियाँरूपी घोड़े और मनरूपी हाथी जाता था उस भोगरूपी शत्रु को अब चारों ओर से भक्षण किया है और निष्कण्टक राजा चक्रवती हुआ हूँ। तू परम सूर्य है और परम आकाश में तेरा मार्ग