पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६५८

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योगवाशिष्ठ।

है, उदय-अस्त से रहित तू नित्य प्रकाशरूप है और सबके भीतर बाहर प्रकाशता है। अब मैं भोगों को लीलारूप देखता हूँ-जैसे कामी कामिनी को देखे परन्तु इच्छा से रहित हो तैसे ही तू ग्रहण करता है। नेत्ररूपी झरोखे में बैठकर तू रूप विषय को ग्रहण करता है और अपनी शक्ति से इसी प्रकार सब इन्द्रियों में वही रूप धारकर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध विषयों को ग्रहण करता है। ब्रह्मकोटर में जो देश है उनमें प्राण अपान शक्ति से तू ही विचरता है, ब्रह्मपुरी में जाता है और क्षण में फिर आता है और सब जगत् देहों में तू ही विचरता है। देहरूपी पुष्पों में तू सुगन्ध है, देहरूपी चन्द्रमा में तू अमृत है, देहरूपी वृक्ष में तू रस है और देहरूपी बरफ में तू शीतलता है। दूध में घृत, काष्ठ में अग्नि, उत्तम स्वादों में स्वाद, तेज में प्रकाश और सर्व असर्व की सिद्धकला पूर्ण तू ही है और सर्व जगत् का प्रकाशक भी तू ही है। वायु में स्पन्द, मन में मुदिता और अग्नि में तेज तुझी से सिद्ध है, प्रकाश में प्रकाश तू है और सब पदार्थों को सिद्धकर्ता दीपक तू है पर लीन हुए से जाना नहीं जाता कि कहाँ गया। संसार में जितने पदार्थ और अहं त्वं आदिक शब्द हैं वे ऐसे हैं जैसे सुवर्ण में भूषण होते हैं सो तूने अपनी लीला के निमित्त किये हैं और आपही प्रसन्न होता है। जैसे मन्द वायु से खण्ड-खण्ड हुए बादल के हाथी आदिक आकार हो भासते हैं तैसे ही तू भौतिक दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूप भासता है। हे देव! ब्रह्मांडरूपी मोती में तू निरिच्छित व्यापक है। भूतोंरूपी जो अन्न का तू खेत है और चेतनरूपी रस से बढ़नेवाला है। तू अस्त की नाई स्थित है अर्थात इन्द्रियों के विषयों से रहित अव्यक्त- रूप है और सब पदार्थों का प्रकाशक है। जो पदार्थ शोभा संयुक्त विद्यमान होता है पर यदि तेरी सत्ता उसमें नहीं होती तो वह अस्त होता है-जैसे सुन्दर स्त्री भूषणों सहित अन्धे के आगे स्थित हो तो वह अस्त-रूपी होता है तैसे ही विद्यमान पदार्थ हो और तू न कल्पे तो अस्त हो जाता है। जैसे दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब होता है उसको देखकर अपनी सुन्दरता बिना कोई प्रसन्न नहीं होता। हे आत्मा! तेरे संकल्प बिना देह काष्ठलोष्ठवत् होती है। जब पुर्यष्टक शरीर से अदृष्ट होती है तब सुख