पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६३

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उपशम प्रकरण।

से कमल स्फुरने लगते हैं तैसे ही मन और प्राणशक्ति से अङ्ग फुरने लगे और जाग जाग शब्द जो भगवान् कहते थे उससे वह जगा और उसने जाना कि मुझको विष्णु भगवान् ने जगाया है और जैसे मेघ का शब्द सुनकर मोर प्रसन्न होता है तैसे वह प्रसन्न हुआ और मन में दृढ़ स्मृति हो आई। तब त्रिलोकी के ईश्वर विष्णुदेव ने, जैसे पूर्व कमलोद्भव ब्रह्मा से कहा था कि हे साधु! तू अपनी महालक्ष्मी को स्मरण कर कि तू कौन है। समय बिना देह के त्यागने की इच्छा क्यों की थी। जो ग्रहण त्याग के संकल्प से रहित पुरुष हैं उनको भाव अभाव के होने में क्या प्रयोजन है? उठकर अपने आचार में सावधान हो, तेरा यह शरीर कल्पपर्यन्त रहेगा और नष्ट नहीं होगा। इस नीति को ज्यों की त्यों मैं जानता हूँ। हे आनन्दित! तू जीवन्मुक्त हुआ राज्य में स्थित हो हे क्षीणमन। गतउद्वेग तेरा देह कल्पपर्यन्त रहेगा और फिर कल्प के अन्त में तू शरीर त्यागकर अपनी महिमा में स्थित होगा-जैसे घट के फूटे से घटाकाश महाकाश को प्राप्त होता है। अब तू निर्मल दृष्टि को प्राप्त हुआ है; लोकों का परावर तूने देखा है और अब तू जीवन्मुक्त विलासी हुआ है। हे साधु! द्वादश सूर्य जो प्रलयकाल में तपते हैं उदय नहीं हुए तो तू क्यों शरीर त्यागता है; उन्मत पवन जो त्रिलोकी की भस्म उड़ानेवाला वह तो नहीं चला है और देवताओं के विमान उससे नहीं गिरे तू क्यों व्यर्थ शरीर त्यागता है? सब लोगों के शरीर सूखे वृक्ष की मञ्जरीवत् नहीं सूखे, पुष्कर मेघ और वह बिजली फुरने नहीं लगी पर्वत तो युद्ध करके परस्पर नहीं गिरने लगे अब तक मैं भूतों को खेंचने नहीं लगा लोकों में विचरता हूँ। यह अर्थ है, यह मैं हूँ, यह पर्वत है, ये भूतप्राणी हैं, यह जगत् है, यह आकाश है, तू देह मन त्याग; देह को धारे रह। हे साधो! जो जीव अज्ञानयोग से शिथिल हुआ है अर्थात् जिसकी देह में आत्मा अभिमान है कि मैं और मम से व्याकुल रहता है और दुःखों से जीर्ण होता है उसको मरना शोभता है जिसको तृष्णा जलाती है और हृदय में संसारभावना जीर्ण करता है और जिसके मनरूपी वन में चित्तरूपी लता दुःख सुखरूपी