पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८२

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योगवाशिष्ठ।

वही जगत् का बीज है, जब यही चैत्यता दृश्य की ओर फुरने से रहित हो तब जगत्भ्रम भी मिट जावेगा और जगत् की ओर फुरना तब मिटे जब जगत् को मायामात्र जानोगे। हे साधो! यह सब जगत् मायामात्र है, कोई पदार्थ सत्य नहीं। जैसे वह भ्रम मायामात्र भासित है तैसे ही यह भी सब मायामात्र जानो। इससे इस भ्रम को त्यागकर अपने ब्राह्मण के कर्म करो। हे रामजी! इस प्रकार कहकर जब विष्णुदेव उठ खड़े हुए तब गाधि और और ऋषीश्वर जो वहाँ थे उन्होंने विष्णु की पूजा की और विष्णु क्षीरसमुद्र को गये। तब वह ब्राह्मण फिर उसी भ्रम को देखने चला। निदान वह फिर क्रान्तदेश में गया और उसको देखकर आश्चर्यवान् हुआ। विष्णु मायामय कहते थे जो कुछ मैंने भ्रम में देखा था सोई प्रत्यक्ष देखता हूँ। ऐसे विचारकर फिर कहा कि जो इस संशय को और कोई दूर नहीं कर सकता इससे फिर मैं विष्णु की आराधना करूँगा। हे रामजी! इस प्रकार विचारकर गाधि फिर पहाड़ की कन्दरा में जाकर तप करने लगा तब थोड़े काल में विष्णु भगवान् प्रसन्न होकर आये और जैसे मेघ मोर से कहे तैसे ही ब्राह्मण से बोले, हे ब्राह्मण! अब क्या चाहता है? तब गाधि ने कहा, हे भगवन्! तुम कहते हो सब भ्रममात्र है और यह तो प्रत्यक्ष भासता है। जो भ्रम होता है सो प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता और मैंने फिर वह स्थान देखे और थोड़े काल से बहुत काल देखने का मुझको संशय है सो दूर करो। हे रामजी! जब इस प्रकार गाधि ने कहा तब भगवान् ने कहा, हे ब्राह्मण! जो कुछ तुझको यह भासता है वह सब मायामात्र है। और जिस प्रकार तुझको यह भासता है वह सब मायामात्र है। जिस प्रकार तुझको यह अनुभव हुआ है वह सुन। हे ब्राह्मण! कण्टकजल नाम चाण्डाल एक चाण्डाल के गृह में उत्पन्न हुआ था और क्रम से बड़ा होकर बड़ा कुटुम्बी हुआ। फिर वहाँ दुर्भिक्ष पड़ा तब उस देश को त्यागकर क्रान्त देश का राजा हुआ। फिर लोगों ने सुना तब सबही अग्नि में जले और वह चाण्डाल आप भी अग्नि में जला। वह कण्टकजल चाण्डाल और था, वह अवस्था उसकी हुई थी और वही प्रतिभा तुमको आन फुरी है। जैसी अवस्था उसकी हुई थी