पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६८७

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उपशम प्रकरण।

तो इतने पदों में कोई भी नहीं है। हे रामजी! चित्त से रहित चेतन चैतन्य कहाता है और अमनशक्ति भी वही है, जबतक सब कलना से रहित बोध नहीं होता तबतक नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और जब वस्तु का बोध हुआ तब एक अद्वैत आत्मसत्ता भासती है। हे रामजी! ज्ञानसंवित की ओर वृत्ति रखना, जगत् की ओर न रखना और जाग्रत् की ओर न जाना। जाग्रत् के जाननेवाले की ओर जाना स्वप्न और सुषुप्ति की ओर न जाना। भीतर के जाननेवाली जो साक्षी सत्ता है उसकी ओर वृत्ति रखना ही चित्त के स्थित करने का परम उपाय है। सन्तों के संग और शास्त्रों से निर्णय किये अर्थ का जब अभ्यास हो तब चित्त नष्ट हो और जो अभ्यास न हो तो भी सन्तों का संग और सत्शास्त्रों को सुनकर बल कीजिये तो सहज ही चमत्कार हो आवेगा। मन को मन से मथिये तो ज्ञानरूपी अग्नि निकलेगी जो आशारूपी फाँसी को जला डालेगी। जबतक चित्त आत्मपद से विमुख है तबतक संसारभ्रम देखता है पर जब आत्मपद में स्थित होता है तब सब क्षोभ मिट जाते हैं। जब तुमको आत्मपद का साक्षात्कार होगा तब कालकूट विष भी अमृत समान हो जावेगा और विष का जो मारना धर्म है सो न रहेगा। जीव जब अपने स्वभाव में स्थित होता है तब संसार का कारण मोह मिट जाता है और जब निर्मल निरंश आत्मसंवित् से गिरता है तब संसार का कारण मोह आन प्राप्त होता है। जब निरंश निर्मल आत्मसंवित् में स्थित होता है तब संसारसमुद्र से तर जाता है। जितने तेजस्वी बलवान् हैं उन सबों से तत्त्ववेत्ता उत्तम है, उसके आगे सब लघु हो जाते हैं और उस पुरुष को संसार के किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि उसका चित्त सत्यपद को प्राप्त होता है। इससे चित्त को स्थित करो तब वर्तमानकाल भी भविष्यत्काल की नाई हो जावेगा और जैसे भविष्यत्काल का राग-द्वेष नहीं स्पर्श करता तैसे ही वर्तमान काल का रागद्वेष भी स्पर्श न करेगा। हे रामजी! आत्मा परम आनन्दरूप है, उसके पाने से विष भी अमृत के समान हो जाता है। जिस पुरुष को आत्मपद में स्थित हुई है वह सबसे उत्तम है जैसे सुमेरु पर्वत के निकट हाथी तुच्छ भासता है तैसे ही उसके