पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९२

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योगवाशिष्ठ।

मैं परमबोध पद को देखूँगा? वह समय कब होगा जब मेरा चित्तरूपी मेघ वासनारूपी वायु से रहित आत्मरूपी सुमेरु पर्वत में स्थित होकर शान्तिमान् होगा? अज्ञानदशा कब जावेगी और ज्ञानदशा कब प्राप्त होगी? अब वह समय कब होगा कि मन और काया और प्रकृति को देखकर हँसूँगा? वह समय कब होगा जब जगत् के कर्मों को बालक की चेष्टावत् मिथ्या जानूँगा और जगत् मुझको सुषुप्ति की नाई हो जावेगा। वह समय कब होगा जब मुझको पत्थर की शिलावत् निर्विकल्प समाधि लगेगी और शरीररूपी वृक्ष में पक्षी आालय करेंगे और निस्संग होकर छाती पर मान बैठेंगे? हे देव! वह समय कब होगा जब इष्ट अनिष्ट विषय की प्राप्ति से मेरे चित्त की वृत्ति चलायमान न होगी और विराट की नाई सर्वात्मा होऊँगा? वह समय कब होवेगा जब मेरा सम असम आकार शान्त हो जावेगा और सब अर्थों से निरिच्छितरूप मैं हो जाऊँगा? कब मैं उपशम को प्राप्त होऊँगा-जैसे मन्दराचल से रहित क्षीरसमुद्र शान्तिमान् होता है-और कब मैं अपना चेतन वपु पाकर शरीर को शरीरवत् देखूँगा? कब मेरी पूर्ण चिन्मात्र वृत्ति होगी और कब मेरे भीतर बाहर की सब कलना शान्त हो जावेंगी और सम्पूर्ण चिन्मात्र ही का मुझे भान होगा? मैं ग्रहण त्याग से रहित कब संतोष पाऊँगा और अपने स्वप्रकाश में स्थित होकर संसाररूपी नदी के जरामरणरूपी तरङ्गों से कब रहित होऊँगा और अपने स्वभाव में कब स्थित होऊँगा? हे रामजी! ऐसे विचारकर उद्दालक चित्त को ध्यान में लगाने लगा, परन्तु चित्तरूपी वानर दृश्य की ओर निकल जाये पर स्थित न हो। तब वह फिर ध्यान में लगावे और फिर वह भोगों की ओर निकल जावे। जैसे वानर नहीं ठहरता तैसे ही चित्त न ठहरे। जब उसने बाहर विषयों को त्यागकर चित्त को अन्तर्मुख किया तब भीतर जो दृष्टि आई तो भी विषयों को चिन्तने लगा, निर्विकल्प न हो और जब रोक रक्खे तब सुषुप्ति में लीन हो जावे। सुषुप्ति और लय जो निद्रा है उसही में चित्त रहे। तब वह वहाँ से उठकर और स्थान को चला-जैसे सूर्य सुमेरु की प्रदक्षिणा को चलता है और गन्धमादन पर्वत की एक कन्दरा में स्थित हुआ जो फूलों से संयुक्त