पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०

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योगवाशिष्ठ।

इनसे अर्थ कुछ सिद्ध नहीं होता। जो ज्ञानवान पुरुष हैं उनको विषयभोग की इच्छा नहीं रहती, क्योंकि आत्मा के प्रकाश से वे इनको मिथ्या जानते हैं। हे मुनीश्वर! ऐसे ज्ञानवान् दुर्विज्ञेय पुरुष हमको तो स्वप्न में भी नहीं भासते। ऐसे विरक्तात्मा दुर्लभ हैं कि जिनको भोगं की इच्छा नहीं और सर्वदा ब्रह्म की स्थिति में भासते हैं। ऐसे पुरुषों को संसार की कुछ इच्छा नहीं रहती, क्योंकि यह पदार्थ नाशरूप हैं। हे मुनीश्वर! जैसे पर्वत को जिस और देखिये पत्थरों से, पृथ्वी मृत्तिका से, वृक्ष काष्ठ से और समुद्र जल से पूर्ण दृष्टि आते हैं वैसे ही शरीर अस्थिमांस से पूर्ण भासता है। ये सब पदार्थ पञ्चतत्व से पूर्ण और नाशरूप हैं ऐसा जानकर ज्ञानी किसी की इच्छा नहीं करता। हे मुनीश्वर! यह जगत् सब नाशरूप हैं, देखते ही देखते नष्ट हो जाता है, मैं उसमें किस का आश्रय करके सुख पाऊँ? जब युगों की सहस्र चौकड़ी व्यतीत होती है तब ब्रह्मा का दिन होता है। उस दिन के क्षय होने से जगत् का प्रलय होता है और ब्रह्मा भी काल पाकर नष्ट हो जाता है। ब्रह्मा भी जितने हो गये हैं उनकी संख्या नहीं हो सकती असंख्य ब्रह्मा नष्ट हो गये हैं तो हम सरीखों की क्या वार्ता है। हम किसी भोग की वासना नहीं करते, क्योंकि सब चलरूप हैं, स्थिर रहने के नहीं, सब नाशरूप हैं, इसलिये इनकी आस्था मूर्ख करते हैं, इनके साथ हमको कुछ प्रयोजन नहीं जैसे मरुस्थल को देख मृग जलपान करने को दौड़ता और शान्ति नहीं पाता वैसे ही मूर्ख जीव जगत् के पदार्थों को सत्य मानकर तृष्णा करता है, परन्तु शान्ति नहीं पाता, क्योंकि सब प्रसाररूप हैं। स्त्री, पुत्र और कलत्र जब तक शरीर नष्ट नहीं होता तभी तक भासते हैं, जब शरीर नष्ट हो जायगा तो जाना न जावेगा कि कहाँ गये और कहाँ से आये थे। जैसे तेल और बत्ती से दीपक बड़ा प्रकाशवान दृष्टि आता है, जब बुझ जाता है तब जाना नहीं जाता कि कहाँ गया वैसे ही बत्तीरूप बान्धव हैं और उसमें स्नेहरूपी तेल है उससे जो शरीर भासता है सो प्रकाश है। जब शरीररूपी दीपक का प्रकाश बुझ जाता है तब जाना नहीं जाता कि कहाँ गया। हे मुनीश्वर! बन्धु का मिलाप ऐसा है जैसे कोई तीर्थयात्रा