पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०२

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योगवाशिष्ठ।

जब चित्त से रहित आत्मसत्ता हो और उसमें चित्त लीन हो जावे तब सत्ता सामान्य उदय हो, जो सत्य है सो ही सत्ता सामान्य है। हे रामजी! जब सब प्रपञ्च शान्त होकर शुद्धबोध हो भीतर बाहर का व्यवधान मिट जावे और सब जगत् एकरूप होकर समाधि और उत्थान एकसा हो जावे ऐसी दशा की जो प्राप्ति है सो ही सत्ता सामान्य है। वह देह के होते ही विदेहरूप है और उसको तुरीयातीत पद कहते हैं। समाधि में स्थित हो तो भी केवल रूप है और उत्थान हो तो भी केवलरूप है। अज्ञानी समाधि के योग्य नहीं, क्योंकि ज्ञान से उपजी समाधि उसको नहीं प्राप्ति हुई। हमसे आदि देवर्षि नारद, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदिक जिन को ज्ञानरूप दृष्टि पुष्ट हुई है वे सत्तासामान्य में स्थित हैं और उनको समाधि और उत्थान में तुल्यता है। जैसे आकाश में पवन का चलना और ठहरना समान है और जैसे पृथ्वी में जल स्थित है और अग्नि में उष्णता स्थित है, तैसे ही सत्ता सामान्य में वह स्थित हुआ। जबतक जगत में विचरने को उसकी इच्छा थी तबतक वह ऐसे विचरता रहा और जब विदेहमुक्ति होने की इच्छा हुई तब पहाड़ की कन्दरा में पत्रों का आसन बनाकर पद्मासन बाँध और दातों से दाँतों को मिलाकर सब संकल्पों का त्याग किया और प्राणवायु को मूल आधारचक्र करके नव द्वार खेचरी मुद्रा से रोके। न भीतर, न बाहर, न अधः, न ऊर्ध्व सर्वभाव-अभाव विकल्पों को त्यागकर उसने जब आत्मतत्त्व में चित्त की वृत्ति को लगाया तब शुद्ध चिन्मात्र में चित्त की वृत्ति जा प्राप्त हुई और रोम खड़े हो आये। जब उस व्युत्थान को भी उसने त्याग किया तब सत्ता सामान्य विश्वम्भर पद को प्राप्त हुआ, जो परम विश्रान्त, अनादि, आनन्द और सुन्दररूप है। तब पुतली की नाई उसका शरीर हो गया और जैसे शरत्काल का आकाश निर्मल होता है, तैसे ही निर्मल पद को प्राप्त हुआ। जैसे सूर्य की किरणों के द्वारा वृक्ष में रस होता है और सूर्य उसे खैंच लेता है और जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजकर उसही में लीन होते हैं तैसे ही उसका चित्त जिससे उपजा था उसी में लीन हो गया, सम्पूर्ण उपाधि विलास से रहित होकर उस आनन्दपद को प्राप्त हुआ