पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४

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योगवाशिष्ठ।

है उसको यह जगत् रमणीय भासता है। जगत् तो देखते ही देखते नष्ट हो जाता है। इस स्वप्नपुरी की नाई संसार की मैं कैसे इच्छा करूँ यह तो दुःख का निमित्त है? जैसे विष मिली मिठाई खानेवाले मृत्यु पाते हैं वैसे ही विषय भोगनेवाले नष्ट होते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे जगद्विपर्ययवर्णन
न्नाम त्रयोविंशतितमसर्गः॥२३॥

श्रीरामजी बोले हे मुनीश्वर! इस संसार में भोगरूपी अग्नि लगी है उससे सब जलते हैं। जैसे ताल में हाथी के पाँव से कमल नष्ट हो जाता है वैसे ही भोग से मनुष्य दीन हो जाते हैं, जैसे वायु से मेघ नष्ट हो जाता है वैसे ही काम, क्रोध और दुराचार से शुभ गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे भटकटैया के पत्ते भौर फल में काँटे हो जाते हैं वैसे ही विषयों को वासनारूपी कण्टक आ लगते हैं। हे मुनीश्वर! यह सब जगत् नाशरूप है, कोई पदार्थ स्थिर नहीं। वासनारूपी जल और इन्द्रियरूपीगाँठ है उसमें पुरुष काल से ग्रसा है वह बड़े दुःख पावेगा। हे मुनीश्वर! वासनारूपी सूत में जीवरूपी मोती पिरोये हुए हैं और मनरूपी नट आय पिरोय कर चैतन्यरूपी आत्मा के गले में डालता है। जब वासनारूपी तागा टूट पड़ता है तब यह सब भ्रम भी निवृत्त हो जाता है। हे मुनीश्वर! इस जीव को भोग की इच्छा ही बन्धन का कारण है उसी से यह भटकता है और शान्ति नहीं पाता। इससे मुझको किसी भोग की इच्छा नहीं न राज्य की ही इच्छा है और न घर की न वन की इच्छा है, न मरने का दुःख ही मानता हूँ और न जीने का सुख मानता हूँ। मुझे किसी पदार्थ का सुख नहीं, सुख तो आत्मज्ञान से होता है, अन्यथा किसी पदार्थ से नहीं होता। जैसे सूर्य के उदय हुये बिना अन्धकार का नाश नहीं होता वैसे ही आत्मज्ञान के बिना संसार के दुःख का नाश नहीं होता। इससे आप वही उपाय कहिये जिससे मोह का नाश हो और मैं सुखी होऊँ। हे मुनीश्वर! भोग के भोगनेवाले अहङ्कार को मैंने त्याग दिया, फिर भोग की इच्छा कैसे हो? हे मुनीश्वर! विषयरूप सर्प ने जिसका स्पर्श किया उसका नाश हो जाता है। सर्प जिसको काटता है वह एक ही बेर उसको