पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४३

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उपशम प्रकरण। हे परन्तु भासता वही है जहाँ चित्त है। जैसे सूर्य का प्रतिविम्ब सब ठोर है परन्तु जहाँ भादर्श अथवाजल है वहाँ भासता हे तैसे ही प्रात्मा जहाँ तहाँ पूर्ण है परन्तु शुद्ध हृदय में भासता है । प्रात्मा का प्रतिनि चित्त ही में भासता है और वह चित्त मात्मा की सत्ता से जगत् रचना फैलाता है व जैसे सूर्य की किरणें धूप को फेलाती हैं। हे रामजी! भूतों का कारण अन्तःकरण ही है, पात्मतत्त्व तो प्रतीत है, भादिकारण नहीं है वास्तव में कारण है। जगत् जो सत् भासता है सो प्रविचार से भासता है। उसी के निवृत्ति का उपाय प्रात्मवान है । हे रामजी | संसार का कारण अन्तःकरण है और असम्यज्ञान से सत्यरूप भासता है जैसे मरुस्थल में असम्यकज्ञान से जल भासता है। जब यथार्थ ज्ञान होता है तब जगत् का कारण चित्त से नष्ट हो जाता है। जैसे दीपक के प्रकाश से अन्धकार नष्ट हो जाता है तैसे ही पात्मज्ञान से चित्त नष्ट हो जाता है। संसार का कारण अपना चित्त ही है इसी का नाम जीव, अन्तःकरण, चित्त और मन है। रामजी ने पूछा, हे महामानन्द के देनेवाले ! इतनी संवा चिच की कैसे हुई है ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! सर्वभावरूप एक परमात्मतत्व है। जैसे समुद्र, नदियाँ, तरङ्गादि संवा एक जब ही धरता है तैसे ही चिचादिक अनेक संवा को प्रात्मा धास्ता है पर सदा एकरूप है, संवेदन फुरने से भनेक रूप धरता है । जैसे एक जल कहीं तरङ्ग कहीं बुबुदे, कहीं जल, कहीं चक्र और कहीं स्थिर-इतनी संवा को धारता है परन्तु सब ही जल रूप हे तैसे ही सर्वशक्ति प्रात्मा सब शरीरों में सर्वरूप होता है। जब स्पन्दकलना दूर होती है तब शुद्धस्वरूप हो भासता है और जहाँ अज्ञान- रूप संसरने को अङ्गीकार करता है तहाँ वही अनन्त प्रात्मा जीव कहाता है। जैसे केसरी सिंह पिंजड़े में फंसता हे तेसे ही यह जीवरूप होता है । हे रामजी ! जहाँ अहंभाव फुरता है वहाँ जीव कहाता है जहाँ निश्चय वृत्ति से फुरता है उसको बुद्धि कहते हैं, संकल्प विकल्प से मन, चिन्ता करने से चित्त, और प्राकृतभाव से प्रकृति कहाता है। हे रामजी प्रकृतिरूप जो पदार्थ है वह जड़ कहाता है मोर चेतन है सो जीव कहाता है। जड़ जोदृश्यभाव में संविभाग है और भजड़ जो जीव