पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६५

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उपशम प्रकरण। ७५७ रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! तत्त्ववेत्ता के लक्षण संक्षेप से फिर कहिये और जिनको तत्त्व का चमत्कार हुमा है उनकी वृत्ति उदारवाणी से कहिये । ऐसा कौन है जो आपके वचन सुनके तृप्त हो ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! जीवन्मुक्त के लक्षण मैंने तुमको बहुत प्रकार से भागे कहे हैं पर अब फिर भी सुनो। हे महाबाहो । संसार को ज्ञानवान सुषुप्ति की नाई जानता है और सब एषणा उसकी नष्ट हो जाती है । वह सब जगत् को मात्मरूप देखता है और कैवल्यभाव को प्राप्त होता है । संसार उसे सुषु- तिरूप हो जाता है और प्रात्मानन्द से घूर्म रहता है वह देता है परन्तु अपने जाने में किसी को नहीं देता। भोर लोकदृष्टि से प्रत्यक्ष हाथोंहाथ ग्रहण करता है परन्तु अपनीदृष्टि से कुछ नहीं लेता ऐसा जो मात्मदर्शी बान- वान उदार भात्मा है वह यन्त्र की पुनलीवत् चेष्टा करता है। जैसे यन्त्र की पुतली अभिमान से रहित चेष्टा करती है तैसे ज्ञानवान् अभिमान से रहित चेष्टा करता है। देखता, हँसता, लेता, देता है परन्तु हृदय से सदा शीतलबुद्धि रहता है । वह भविष्यत् का कुछ विचार नहीं करता भूत का चिन्तन नहीं करता मोर वर्तमान में स्थिति नहीं करता। सब कामों में वह अकर्ता है, संसार की ओर से सो रहा है और प्रात्मा की ओर जाग्रत् है। उसने हृदय से सरका त्याग किया है, बाहर सब कार्यों को करता है भोर हृदय में किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता। बाहर जैसे प्रकृत माचार प्राप्त होता है उसे भमिमान से रहित करता है देष किसी में नहीं करता और सुख दुःख में पवन की नाई होता है। एवम् भ्रम को त्याग- कर उदासीन की नाई सब कार्य करता है न किसी की वाञ्छा है और न किसी में खेदवान है। बाहर से सब कुछ करता दृष्टि भाता है पर हृदय से सदा प्रसंग है। हे रामजी ! वह भोक्ता में भोक्ता है, अभोक्ता में प्रभोक्ता है, मूखों में मूर्खवत् स्थित है, बालकों में बालकवत्, वृद्धों में वृद्भवत्, धैर्यवानों में धैर्यवान, सुख में सुखी, दुःख में धैर्यवान है । वह सदा पुण्य- कर्ता, बुद्धिमान, प्रसन्न, मधुरवाणी संयुक्त और हृदय से तृप्त हैं उसकी दीनता निवृत्त हुई है, वह सर्वया कोमलभाव चन्द्रमा की नाई शीतल और पूर्ण है। शुभ कर्म करने में उसे कुछ अर्थ नहीं और अशुभ में कुछ