पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६९

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उपशम प्रकरण रोकना किस प्रकार होता है ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! सन्तजनों के संग, सदशाबों के विचार और विषयों के वैराग्य से योगाभ्यास होता है। प्रथम जगत् में असतबुद्धि करनी चाहिये और वाञ्छित जो अपना इष्टदेव है उसका ध्यान करना चाहिये । जब चिरकाल ध्यान होता है तब एक तत्त्व का अभ्यास होता है उससे प्राणों का स्पन्दन रोका जाता है।रेचक, पूरक और कुम्भक जो प्राणायाम हैं उनका जब भखेदचित्त होकर अभ्यास दृढ़ करे और एक ध्यानसंयुक्त हो उससे भी प्राणों का स्पन्द रोका जाता है। उकार का उच्चार करने से ऊर्ध्व उसकी जो सूक्ष्मध्वनि होती है तो प्रथम शब्द बड़ी ध्वनि से होता है और फिर सूक्ष्मवान शेष रहती है उसमें चित्त की वृत्ति लगावे तो सुषुप्तिरूप अवस्था में वृत्ति तद्रूप हो जाती है तभी प्राणस्पन्द रोका जाता है । रेचक प्राणायाम, के अभ्यास से विस्तृत पाण वायु से शून्यभाव आकाश में जाय लीन होता है तब भी प्राण स्पन्द रोका जाता है । कुम्भक के अभ्यास केवल से भी प्राणवायुरोका जाता है। तालुमुल के साथ यत्न से जिला का तालुघण्टा से लगा खेवरीमुद्रा से वायु ऊर्ध्वरन्ध्र को जाती है और ऊरन्ध्र में गये से भी प्राणवायु का स्पन्द रोकाजाता है। नासिका के पत्र में जो द्वादश भंगुल पर्यन्त भपान- रूपी चन्द्रमा का निर्मल स्थान प्रकाश में है उसको ज्यों का त्यों देखे तो भी प्राणस्पन्द रोका जाता है। तालु के द्वादश भंगुल ऊर्ध्वरन्ध्र का अभ्यास हो तो उसके अन्त में जब प्राणों को लगावे तब उस संवित में प्राणों का फुरना नष्ट हो जाता है । जो भ्रवमध्य त्रिपुटी में प्रकाश को त्यागकर जहाँ चेतनकला रहती है वहाँ वृत्ति लगावे तो उससे भी प्राण कला रोकी जाती है। जरे सब वासनामों को त्यागकर हृदय माकाश में वेतनसंवित का ध्यान करे तो भी चिरकाल के अभ्यास से प्राणस्पन्द रोका जाता है । रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! जगत् के भूतों का हृदय क्या कहाता है जिस महाभादर्श में सब पदार्थ प्रतिविम्बित हो जाता है ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जगत् के भूतों के दोहृदय हैं-एक ग्रहण करने योग्य है और दूसरा त्यागने योग्य । नाभि से जो दश अंगुल ऊर्ध्व है वह त्यागने योग्य है परिच्छिमभाव से जो देह के एक स्थान में स्थित है