पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८२

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योगवाशिष्ठ। करण भौर द्रव्य का सम्बन्ध होता है-जैसे जल भौर मृत्तिका का सम्बन्ध होता है, जैसे भौषध में चन्द्रमा की सत्ता प्राप्त होती है, जैसे सूर्य की तपन से शिला तप जाती है, जैसे बीज अंकुर का सम्बन्ध होता है, पिता और पुत्र का सम्बन्ध होता है और दस और गुण का सम्बन्ध होता है। भाकार सहित वस्तु का सम्बन्ध निराकार निर्गुण वस्तु से कैसे हो? परमात्मा चैतन्य है, तू जड़ है, वह प्रकाशरूप है, तू तमरूप है, वह सत्- रूप है, तू असवरूप है, इस कारण सम्बन्ध तो किसी के साथ नहीं बनता है तो तू क्यों वृथा जलता है ? तू मननरूप है परमात्मा सर्वकलना से रहित है। तेज की एकता तेज से होती है और जल की एकता जल से होती है। तू कलरूप है, परमात्मा निष्कलङ्क है तेरी एकता उससे कैसे हो? जिसका कुछ भङ्ग होता है उसका सम्बन्ध भी होता है सो सम्बन्ध तीन प्रकार का है-सम, भसम और विलक्षण । जैसे जल से जल की एकता और तेज से तेज की एकता होती है यह सम सम्बन्ध है पर तेरा मात्मा के साथ सम सम्बन्ध नहीं। दूसरा अर्थ सम्बन्ध यह है कि जैसे बी और पुरुष के भङ्ग समान होते हैं परन्तु कुछ विलक्षणरूप हैं सोमर्थ सम सम्बन्ध भी तेरा और मात्मा का नहीं । कुछ अन्य की नाई भी तेरा सम्बन्ध नहीं-जैसेजल और दूध का सम्बन्ध होता है तैसे भी तेरा सम्बन्ध नहीं-और अत्यन्त जो विलक्षण हैं उनकी नाई भी तेरा सम्बन्ध नहीं- जैसे काष्ठ और खाख, पुरुष और हाथी, घोड़ा भादिक का सम्बन्ध नहीं। आधार-आधेयवत् भी तेरा सम्बन्ध नहीं-जैसे बीज और अंकुर, पिता और पुत्र प्रादिक का जो सम्बन्ध है तैसे भी तेरा और मात्मा का सम्बन्ध नहीं, क्योंकि सम्बन्ध उसका होता है जिनके साथ कुछ भी भज मिलता है, जिसका कोई भङ्ग नहीं मिलता और परस्पर विरोध हो उसका सम्बन्ध कैसे कहिये ? जैसे कहिये कि शश के सींग पर अमृत का चन्द्रमा बैठा है वा तम और प्रकाश इकट्ठे हैं तो जैसे यह नहीं बनता, तैसे ही प्रात्मा के साथ देह, मन और इन्द्रियों का सम्बन्ध नहीं बनता क्योंकि प्रात्मा सर्वकलना से अतीत, नित्य शुद्ध, भदेत और प्रकाश रूप है और मनादिक जड़ असत्, मिथ्या और तमरूप हैं इनका सम्बन्ध