पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९१

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उपशम प्रकरण। ७८३ रामजी ने पूवा, हे भगवन । वीतव मुनीश्वर का जो शरीर विन्ध्या- चल पर्वत में फंसा था फिर उसकी क्या अवस्था हुई ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! उसके अनन्तर भात्मवेत्ता वीतव मुनीश्वर एक काल में शरीर गणों को मन से विचारने लगा कि कई नष्ट हो गये हैं। उन भनटों में पृथ्वी के मध्य जो उसका स्थित था उसको देखा कि कन्दरा की पूलि में वर्षा से फँस गया हे और ऊपर तृणजाल जम गया है। उसको देखकर कहने लगा कि इसमें प्रवेश करूँ पर फिर विचार किया कि यह तो जड़ गूंगा और फंसा हुआ है और इसको मैं नहीं निकाल सकता, इससे सूर्य- मण्डल को जाऊँ कि सूर्य के सारथी अरुण पंगु इसको निकालेंगे, अथवा इसके साथ मेरा क्या प्रयोजन है ? यह नाश हो जावे अथवा रहे इतना यत्न में किस निमित्त करूँ? मैं अपने निर्गुण स्वरूप में स्थित होऊँ देह से मेरा क्या है। इस प्रकार विचार वीतव तूष्णीम हो गया और एक क्षण के अनन्तर फिर चिन्तन करने लगा कि पृथ्वी में न कुब त्यागने योग्य है और न कुछ प्रहण करने योग्य है, इससे देह को त्यागना और रखना समान है तो यह शरीर किस निमित्त दवा रहे। कुब काल और इसका पारब्धवेग है इसलिये जोपाकाश में सूर्य स्थित है उसमें प्रवेश करूं-जैसे भादर्श में प्रतिबिम्ब प्रवेश करता है और उस शरीर को सूर्य के सारथी से निकलवाऊँ । हे रामजी! ऐसे विचारकर मुनीश्वर पुर्यष्टकरूप से भाकाशमार्ग में चढ़ा और प्रणाम करके सूर्य के भीतर वायुरूप हो प्रवेश किया-जैसे शब पिण्ड में भग्नि प्रवेश करती है। सूर्य भगवान ने जाना कि वीतव मुनीश्वर ने प्रवेश किया है और सर्वत्र थे इससे जाना कि पृथ्वी में इसका शरीर कीचड़ और तृणों से दवा हुमा है उसके निकलवाने के निमित्त आया है। ऐसे विचार सूर्य ने अपने सारथी से कहा। हे सारथी । विन्ध्याचल पर्वत की कन्दरा में वीतव मुनीश्वर का शरीर दवा पड़ा है उसको तू जाकर निकाल दे। तब अरुण नामक सारथी ने जिसका शरीर हाथी के समान है विन्ध्या- चल पर्वत में प्राकार नसों से वह शरीर निकाला। उसके नख ऐसे थे जिनसे वह पहाड़ उखाड़ डाले उन नखों से धराकोटर में गड़े हुए उस